फ़रिश्ते निकले : देवी और पतिव्रता स्वरूप को खारिज करके भी महिला नायिका बन सकती है

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किताब – फ़रिश्ते निकले
लेखिका – मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशन – राजकमल
कीमत – 935 रुपये

स्त्री को चूंकि प्रेम और सौन्दर्य से ही जोड़कर देखा जाता है इसलिए उनसे प्रेम और सौन्दर्य के इर्द-गिर्द ही बेहतर रचने की भी अपेक्षा की जाती है. लेकिन अनुभव के विस्तार ने बहुत सारी लेखिकाओं को प्रेम से इतर विषयों पर लिखने को भी प्रेरित किया है. मैत्रेयी पुष्पा हिन्दी साहित्य की एक ऐसी ही लेखिका हैं जिनके लेखन में प्रेम तो रहा लेकिन महिलाओं का गुस्सा, सपने, संघर्ष और सवाल भी उसी तीव्रता के साथ दर्ज हुए हैं. मैत्रेयी का नया उपन्यास ‘फ़रिश्ते निकले’ ऐसी ही नायिका बेला बहू की कहानी है जो प्रेम में तबाह होकर ऐसी ऊंचाई पर पहुंचती है कि दूसरों का आसरा बन सके.
यह उपन्यास मूलतः बेला बहू नाम की नायिका के ‘फूलन देवी’ जैसी शख्सियत बनने के इर्द-गिर्द घूमता है. मैत्रेयी अनेक उदाहरणों से साबित करती हैं कि उपन्यास में आए सभी मुख्य पात्र, जो कि समाज की नजरों में हत्यारे, डकैत और अपराधी हैं, असल में फरिश्ते हैं. संभवतः इसी कारण उपन्यास का नाम ‘फरिश्ते निकले’ रखा गया होगा. मैत्रेयी की लगभग सभी कथा-कहानियों के महिला पात्र एक तरह से बागी होते हैं. उनके लेखन की कुछ खासियतों में से एक यह है कि उनके गांव-देहात की महिला पात्र शहरी महिला पात्रों से कहीं ज्यादा आधुनिक, सशक्त और प्रगतिशील होती हैं. जैसे इस उपन्यास की मुख्य पात्र बेला बहू एक स्थान पर कहती है, ‘सब पुराने बखेड़ा हैं. पंडित, पुजारी और बाबा-सन्तन के तमाम जाल फैले हैं. पूरे बारह साल भक्ति करके देख ली. समझो कि साधु-सन्त और पुजारी महराजों में बरबाद भए. पुन्न-धरम के तमाम टटरम करते-करते बिलात जमा-पूंजी बहा दी. देवी जागरण, साधु सेवा, बरत उपास और तुम्हारे जन्तर-मन्तर सब धोखाधड़ी लगे हमें तो.’
महिला के ऊपर जो नैतिकता के एकतरफा दबाव हैं, मैत्रेयी बहुत साफ-सीधे तरीके से उनकी चीर-फाड़ करती हैं – ‘बेला बहू! परिवार की पोल खुलेगी लेकिन तुम्हारा चाल-चलन तो जितना भी खुलेगा, लोगों की दिलचस्पी की चीज होगी. समाज हो, या साहित्य या कि राजनीति, इनमें आनेवाली स्त्री ‘कैची पॉइंट’ मानी जाती है. मर्दों के चरित्र को कौन देखता है.’
इतिहास में जिन महिला पात्रों या घटनाओं का बहुत महिमामंडन किया गया है और जिन्हें बहुत हेय नज़र से देखा गया है, मैत्रेयी ने दोनों ही तरह की घटनाओं और पात्रों का पुनर्पाठ किया है. वे समाज द्वारा परिभाषित किए गए महिलाओं के देवी और पतिव्रता स्वरूपों को सिरे से खारिज करती हैं – ‘ राजा दशरथ अपना प्रण भूल गए मगर कैकेयी भी भूल जाती यह जरूरी था क्या? बात तो यहीं आकर खटकती है कि वे भी अपने हक को क्यों नहीं भूलीं?… आत्मा की आवाज पर रानी ने राजा की योजना का विरोध किया. पति एवं राजा की विरोधिनी स्त्री अच्छी नारी कैसे मानी जा सकती है? न मानी जाए,… बिन्नू, हम तो जो कुछ समझे हैं, जिन्दगानी ने समझा ही दिया है. अब तो तुम समझो कि हम जिन्दगी को क्या-क्या समझा चुके हैं. दुनिया को बता चुके हैं कि खिताब-मिताब हमारे काम के नहीं. सती, देवी, पतिव्रता, आज्ञाकारिणी, अर्धांगिनी और अनुगामिनी जितने भी ‘अच्छे-अच्छे’ नाम हमने किताबों में पढ़े हैं, सब फरेबी हैं.’
मैत्रेयी के इस उपन्यास में मर्दों की नजर से महिलाओं को भोग की वस्तु समझी जानेवाली छवि कहीं-कहीं बिल्कुल मंटो से मिलती है. यहां तक कि कई जगह पत्नियों के वर्णन पढ़ते-पढ़ते मंटो के वैश्याओं के लिए इस्तेमाल किए गए शब्द ‘गोश्त’ की याद आ जाती है – ‘मगर खातिरदारी अब बेला की हो रही थी. दूध छुहारे औटाकर, बादाम का हलुआ बनाकर, घी में मखाने तलकर वैद्यजी ने खुराक के रूप में देने के लिए कहा था, जिसके लिए एक औरत का इन्तजाम किया गया. खुराक नहीं खाएगी तो देह पूरी जवान कैसे होगी?… शुगर सिंह जब न तब देह की नाप-तोल करता. वह बकरा, मुर्गा और सुअर की तरह शरीर पर गोश्त चढ़ने के लिए पाली जा रही थी.’
मंटो ने जैसे वैश्याओं की भयंकर दास्तान को दर्ज किया मैत्रेयी ने देश के गांव-देहात की हर दबी-कुचली महिला की तकलीफ, दमन, दैहिक और भावनात्मक शोषण को जबान दी है – ‘बेला बहू, यह खबर हमें भी झूठी नहीं लगी क्योंकि हम ऊंटेरे हैं, जहां भी जाते हैं, ऐसी अनहोनी, घिनौनी और भयानक खबरें सुनते हैं. लगता है, पूरा मुलक लड़कियों, जनानियों और बेहोश देहों और लाशों से पटा पड़ा है जिनके आसपास चील-गिद्ध मंडरा रहे हैं.’
‘जो सदा रौंदी गई बेबस समझकर, वही मिट्टी एक दिन मीनार बनती है’ यह पंक्ति मैत्रेयी की नायिकाओं पर सटीक बैठती है. लेखिका के बाकी उपन्यासों और कहानियों की तरह इस उपन्यास की नायिका भी प्रेम में वैसे ही महकती है जैसे मिट्टी पहली बारिश में सौंधी खुशबू बिखेरती है. लेकिन प्रेम की आड़ में किए गए छल और दमन में ऐसी नायिकाएं मरती-खपती नहीं बल्कि बेला बहू जैसी बागी बनती हैं. इन्हें समाज तो नहीं अपनाता लेकिन ये समाज के लिंगभेद, जातिभेद, वर्गभेद और इंसानियत पर किसी भी तरह के जुल्म के खिलाफ अपनी ही तरह से आवाज उठाती हैं – ‘जो बच्चे हैं या पन्द्रह-सोलह साल के किशोर हैं, वे बड़े होकर दौलत कमाने, दहशत दिखाने या दलबन्दी करके राजनीति पर कब्जा जमाने वाले नहीं होंगे. वे बेला बहू के स्कूल में लाए जाएंगे, सिखाए जाएंगे कि अपने वतन के लिए अच्छे-से-अच्छे सपने क्या होते हैं, कि भाईचारा क्या होता है, कि लड़की और लड़के में समानता जरूरी है. वह तुम्हारी साथी है, शिकार नहीं. डर दहशत जैसे भयानक भावों के लिए जगह नहीं बचेगी.’
इस उपन्यास में चंबल की महिला बागियों की जीवन कथा भी है और लोहापीटाओं का ऐतिहासिक और सामाजिक वर्णन भी. उपन्यास कई मसलों पर समाज और सरकार के दोहरे रवैये की कलई भी खोलता है. कैसे समाज महाराणा प्रताप पर तो गर्व करता है लेकिन महाराणा प्रताप के वंशज लोहापीटाओं को अपराधी मानता है.
उपन्यास पढ़ते-पढ़ते कई जगह पाठकों को फिल्म ‘पानसिंह तोमर’ की सहज ही याद हो आएगी. उपन्यास कई जगह बेहद त्रासद यथार्थ से गुजरने के बाद भी आशा और उम्मीद का रास्ता नहीं छोड़ता. साथ ही पाठकों के मन में समाज को ज्यादा मानवीय दिशा की तरफ ले जाने की छटपटाहट भी पैदा करने की कोशिश करता है. यह मैत्रेयी की सशक्त लेखनी का बल है कि वे कई जगह मंटो का आधुनिक महिला संस्करण लगती हैं. कुल मिलाकर ‘फ़रिश्ते निकले’ एक पठनीय उपन्यास है.

किताब किसे पढ़नी चाहिए –

1. जो समाज में बागी बनी लड़कियों और लोहापीटाओं की जिंदगी की मुश्किलें जानना चाहते हों.
2.उन लड़कियों को खासतौर से जो प्रेम में धोखा खाई हैं या बलात्कार की शिकार हुई हैं, ताकि वे जान सकें कि इसके बाद भी जीवन में आगे बढ़ने के बहुत रास्ते हैं.