एक मंझा हुआ निर्देशक हमेशा शानदार और सफल फिल्म नहीं बना पाता. ठीक उसी तरह एक अच्छा लेखक हमेशा अच्छा ही लिखे यह कतई जरूरी नहीं. और फिर अच्छे निर्देशक की एक बुरी फिल्म जिस तरह की खीज पैदा कर सकती है कुछ-कुछ यही बात अच्छे लेखक की बुरी रचना पर भी लागू होती है.
मृदुला गर्ग की यह लंबी कहानी ‘वसु का कुटुम’ एक अच्छी लेखिका की लचर कहानी है. यह एक ऐसी रचना है जो भरपूर संभावना पैदा करती है लेकिन, फिर उस पर खरा नहीं उतरती. ‘कठगुलाब’ और ‘मिलजुल मन’ जैसी सशक्त रचना देनेवाली लेखिका, वसु का कुटुम में वैसा जादू नहीं जगा पातीं.
यह कहानी बहुचर्चित निर्भया कांड को बुनियाद बनाकर लिखी गई है और इसकी केंद्रीय पात्र ‘दामिनी’ नाम की लड़की है. लेखिका दामिनी के बहाने समाजसेवा के नाम पर सिर्फ कमाई करने वाले एनजीओ, महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण मुद्दों पर ज्यादातर खोखली बहस करने वाले न्यूज चैनलों और मकान बनाते समय सरकारी नियमों को ताक पर रखने वाले बिल्डरों की पोल खोलती है.
इस पूरी कहानी में कई सारे झोल हैं. दामिनी जब बहुत बीमार हो जाती है तो राघवन नाम का दुकानदार, दामिनी के यहां काम करने वाली की एक महिला की मदद से उसे सफदरजंग अस्पताल ले जाता है. डॉक्टर एकदम से उसे पहचान लेते हैं कि यह वही दामिनी है जिसका केस काफी प्रसिद्ध हुआ था. किताब में आगे का घटनाक्रम कुछ यूं दिया गया है – ‘राघवन घबराकर उसके साथ हो लिया और रास्ते में सड़क पर झाडू़ लगा रही नजमा को भी आवाज लगा दी. तीनों ने मिलकर उसे एक टैक्सी में ठूंसा और अस्पताल ले गए. काफी देर बाद दो डॉक्टर नमूदार हुए. उनमें से एक ने उसे देखा नहीं कि घबराकर दो कदम पीछे हटकर बोला, ‘ये तो वही है.’ ‘कौन?’ रत्नाबाई ने कहा. ‘दामिनी!’ उसने डरकर ऐसे कहा, जैसे भूत देख लिया हो! ‘हां ये दामिनी है. मरने को पड़ी है. इसको लेकर चलो अन्दर. इलाज करो’ वह खड़ा देखता ही रहा. लगा, बेहोश होकर गिर जाएगा.
इस जगह यह बात साफ हो जाती है कि यह लड़की वही दामिनी है, जिसका मामला सुर्खियों में आया था. लेकिन इसके बावजूद राघवन एक जगह फिर से शंका करता है कि वह लड़की सच में दामिनी है या नहीं. – ‘फिर वही पुराना चक्कर तो था ही जो चक्रवात की तरह उसे घुमा रहा था, पटकनी दे-देकर. यह कि वह औरत वाकई दामिनी थी, जिसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था, जिसे मरा हुआ घोषित कर दिया गया था और जिसका दाहकर्म बड़ी शानो-शौकत से हुआ था? या कोई और लड़की थी जिसका नाम दामिनी था? जिसके साथ वैसा ही हादसा हुआ था मगर मरने की नौबत नहीं आई थी? यह वह दामिनी नहीं थी जिसे सब मरा हुआ मान रहे थे, मगर जो मरी न होकर जिन्दा थी? कतई नहीं थी, इसका सबूत कोई उसे ला देता तो वह निजात पा जाता चक्रवात से.
राघवन दामिनी का सच जानने के लिए उसकी कामवाली को पूरी बात पता लगाने को कहता है – ‘एक काम करो मेरा रत्नाबाई.’ वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, ‘मैं तुम्हारे पांव पड़ता हूं. तुम एक काम कर दो मेरा.‘ ‘क्या?’ तुम बहुत नाक घुसेड़ू किस्म की औरत हो. हर के फटे में पांव डालती हो. हर चीज सूंघ लेती हो. सब जगह बात से बात निकालती हो. किसी तरह भी पता लगाओ, सबूत लाओ कि ये दामिनी है कि नहीं है.’
वह लड़की दामिनी है या नहीं यह जानने की स्वाभाविक जिज्ञासा तो समझ में आती है लेकिन यह जानने के लिए किसी के हाथ जोड़ना और पैर पड़ना बेहद अव्यावहारिक और अटपटा है. यह बात कहानी में आपको बुरी तरह खटकती है.
यह पूरी कहानी कहीं खुद को यथार्थ के करीब लाने के कोशिश करती है तो कहीं बिल्कुल कपोल-कल्पना लगती है. यह कहना सही होगा लेखिका ‘वसु का कुटुम’ में यथार्थ और कल्पना के बीच सही संतुलन नहीं बिठा सकीं. यह बात हैरान करती है कि एक इतनी सधी हुई लेखिका ऐसी कल्पना का सहारा लेती हैं जो थोड़ी भी सहज-स्वाभाविक नहीं लगती. वसु का कुटुम के एक पात्र राघवन को लेखिका अंत तक कन्फ्यूज ही दिखाती हैं सो इसके चलते पाठक भी कन्फ्यूज हो जाते हैं कि लड़की सच में वही दामिनी है जिसका मामला सुर्खियों में आया था या कोई और.
कहानी बहुत जगह अनचाहे झिलाऊ विवरणों से भरी पड़ी है. जो बात सिर्फ पात्रों के माध्यम से कहलवाई जा सकती थी वह लेखिका बार-बार खुद कहती हैं. ‘अब इसको बार-बार क्या दोहराना. आप तो जानते ही हैं अपने दफ्तरों को, सरकारी हों या गैर-सरकारी, उनका यही दस्तूर है. कोई भी काम हो, कह देते हैं, हो जाएगा. यह नहीं कहते कि नहीं होगा, कि आप निराश होकर घर बैठें. यह भी नहीं बतलाते कि कब होगा. जिससे आप एक मुकरर्र दिन, वहां पहुंचकर काम होने की पक्की तस्दीक कर सकें. बस कहते रहते हैं कि हो जाएगा.’ ऐसे ढेरों जबरदस्ती के विवरण इस कहानी में हैं जिनके कारण कहानी को पूरा पढ़ना और भी ज्यादा भारी लगता है.
कहानी में एक जगह राघवन रत्नाबाई से कहता है कि जिस स्त्री के साथ इतना अत्याचार हुआ हो, वह इतनी बेखौफ और जीवट होकर कैसे जी सकती है? इसके जवाब में रत्नाबाई कहती है ‘भइया, जिसे मार-मूरकर गेर दिया जावे, उसे किसी का डर नहीं रहता और वो बहुत जीवट हो जाती है.’ यह एक पंक्ति इस कहानी के लिए महान संभावना पैदा करती है. पूरी कहानी को पढ़कर ऐसा लगता है कि इस विचार के इर्द-गिर्द यदि यह पूरी कहानी रची जाती तो बहुत ही अलग और सशक्त बन पड़ती. तब इस कहानी में यह दिखाया जा सकता था कि वह दामिनी जब बिना अपनी पहचान छिपाए जीती है, तब उसे समाज कैसे-कैसे प्रताड़ित करता है? मोमबत्ती लेकर जुलूस निकालने वाला समाज व्यवहार में ऐसी ब्लात्कृत पीड़िताओं के प्रति कितना विनम्र और सहयोगी होता है, इसकी भी पोल खोली जाती. साथ ही मीडिया और एनजीओ कैसे ऐसी खबरों को अपने लिए कैश करते हैं यह बात उस कहानी में भी आसानी से दिखाई जा सकती थी. हालांकि यह लेखक का ही निर्णय होता कि वह अपनी कहानी में किस विचार को तवज्जो दे किसे नहीं.
कुल मिलाकर वसु का कुटुम एक ऐसी कहानी है जिसकी नायिका के बारे में लेखिका खुद बहुत स्पष्ट नहीं है. ऐसा होता तो इतनी अच्छी थीम से शुरू हुई कहानी कहीं ज्यादा सशक्त तरीके से बुनी जा सकती थी.
किताब : वसु का कुटुम
लेखिका : मृदुला गर्ग
प्रकाशक : राजकमल
मूल्य : 125 रुपये