अदालत का यह निर्णय बताता है कि आरक्षण तो ठीक है, लेकिन योग्यता भी जरूरी है

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(शीर्ष अदालत का मानना है कि नियुक्तियों के वक्त सीटें खाली रह जाना न्यूनतम योग्यता को दरकिनार करने की वजह नहीं हो सकता)

बात 2011 की है. पंजाब में पीसीएस (जे) की प्रारंभिक परीक्षा का आयोजन हुआ था. पीसीएस (जे) यानी न्यायिक सेवा सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की परीक्षा. इसी के जरिये निचली अदालतों में जजों की नियुक्ति होती है. पंजाब लोक सेवा आयोग ने जब इस परीक्षा के परिणाम जारी किये तो वे सारे देश में चर्चा का मुद्दा बन गए. दरअसल इस परीक्षा में जहां सामान्य वर्ग के परीक्षार्थी न्यूनतम 315 अंक और अनुसूचित जाति के परीक्षार्थी न्यूनतम 265 अंक लेकर पास हुए थे, वहीं एक परीक्षार्थी ऐसा भी था जो माइनस दस अंक लेकर भी इस परीक्षा को पास कर गया था. इस परीक्षार्थी का नाम था तजिंदर सिंह.
तजिंदर ने इस परीक्षा में कुल 125 सवालों के जावाब दिए थे. इसमें से उनके सिर्फ 23 जवाब ही सही थे जबकि 102 गलत. नेगेटिव मार्किंग के चलते उनके कुल अंक माइनस दस बने. लेकिन इसके बावजूद भी वे इस परीक्षा को इसलिए पास कर गए क्योंकि वे आरक्षण की एक ऐसी श्रेणी में आते थे जहां एक तरह से उन्हें अपनी न्यूनतम योग्यता खुद ही तय करनी थी.
वे अनुसूचित जाति के साथ ही ‘लीनिअल डिसेंडेंट ऑफ़ एक्स-सर्विसमैन’ (भूतपूर्व सैनिक के नजदीकी वंशज) की भी श्रेणी में आते थे. इस श्रेणी में बेहद कम परीक्षार्थी होने के चलते प्रतियोगिता इतनी कम थी कि तजिंदर माइनस दस अंकों के साथ भी जज बनने की पहली सीढ़ी पार कर गए.
तजिंदर सिंह का यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया. हालांकि तजिंदर पीसीएस (जे) की मुख्य परीक्षा में असफल रहे क्योंकि यहां आयोग और उच्च न्यायलय द्वारा अंकों का एक न्यूनतम आंकड़ा तय किया गया था जिसे पार करना हर परीक्षार्थी के लिए अनिवार्य था. लेकिन तजिंदर के मुख्य परीक्षा तक पहुंचने से ही देश भर में आलोचकों ने पूरी आरक्षण व्यवस्था को ही सवालों के घेरे में ला खडा किया था. इस मामले ने कई लोगों को यह मौका दे दिया था कि वे आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार के लिए सरकार से मांग करने लगे थे.
2011 के इस मामले का जिक्र आज हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में एक संस्था ने एक जनहित याचिका दाखिल की थी. इस याचिका में मांग की गई थी कि आरक्षित परीक्षार्थियों के लिए उस न्यूनतम योग्यता को भी समाप्त कर दिया जाए जिसके चलते तजिंदर जज नहीं बन सके थे. ‘वालंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस’ नाम की इस संस्था का याचिका में कहना था कि उच्च न्यायालय तथा पंजाब लोक सेवा आयोग द्वारा पीसीएस (जे) की मुख्य परीक्षा में अनुसूचित जाति के परीक्षार्थियों के लिए जो न्यूनतम 45 प्रतिशत अंक हासिल करने की बाध्यता रखी गई है, उसे समाप्त कर दिया जाए.
संस्था ने यह याचिका हाल ही आए पीसीएस (जे) के परिणामों को देखते हुए दाखिल की थी. कुछ समय पहले पंजाब में हुई यह परीक्षा कुल 119 पदों के लिए आयोजित की गई थी. इनमें से 22 पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थे. परीक्षा में नियमों के अनुसार सामान्य वर्ग के परीक्षार्थियों को मुख्य परीक्षा में न्यूनतम 50 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के परीक्षार्थियों को न्यूनतम 45 प्रतिशत अंक हासिल करने जरूरी थे. चूंकि इस परीक्षा में अनुसूचित जाति के सिर्फ तीन छात्र ही मुख्य परीक्षा पास कर पाए थे इसलिए इस याचिका दाखिल करने वाली संस्था का मानना था कि इस शर्त को समाप्त कर दिया जाए.
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पीबी भजंतरी की पीठ ने इस याचिका की सुनवाई की. उन्होंने इस याचिका को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि कई मौके ऐसे भी आते हैं जब सामान्य वर्ग के पद भी योग्य परीक्षार्थियों की कमी के चलते खाली रह जाते हैं. लिहाजा किसी परीक्षा में पदों के खाली रह जाने के चलते न्यूनतम योग्यता जैसी शर्तों को समाप्त नहीं किया जा सकता. बीती दस मार्च को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस याचिका को ख़ारिज कर दिया था जिसके चलते संस्था ने अब सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल कर दी.
सर्वोच्च न्यायालय पहुंचे इस मामले की सुनवाई बीती 25 जुलाई को मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की संयुक्त पीठ में हुई. इस पीठ ने भी संस्था की अपील को ठुकराते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को ही सही ठहराया है. न्यायालय ने याचिका ख़ारिज करते हुए कहा कि ‘जजों की नियुक्ति के लिए एक न्यूनतम योग्यता होना जरूरी है, इसके लिए एक पैमाना होना जरूरी है. सिर्फ इसलिए कि कोई व्यक्ति अनुसूचित जाति से आता है, उसके लिए सारे पैमानों को समाप्त नहीं किया जा सकता.’