‘मैंने कुछ महीने पहले कहा था, उससे कुछ महीने पहले भी कहा था और हर बार जब हम गोलीबारी की घटना देखेंगे तो दोबारा कहूंगा. इससे निपटने के लिए हमारा सोचना या प्रार्थना करना ही काफी नहीं है.’
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का यह बयान पिछले साल अक्टूबर में एक कॉलेज में हुई गोलीबारी की घटना के बाद आया था. उन्होंने और भी कई बातें कहीं जिनका मजमून यह था कि अमेरिकी समाज में बंदूक की जो संस्कृति गहरे जम चुकी है उसका इलाज हो. ओबामा कई मौकों पर यह बात कहते रहे हैं. उन्हें अमेरिका में हथियार कानूनों को सख्त बनाने का मुखर समर्थक माना जाता है. लेकिन, दुनिया में सबसे ताकतवर माने जाने वाले इस शख्स की भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं चल पा रही.
हाल में ऑरलैंडो गे-नाइटक्लब में गोलीबारी की घटना के बाद एक बार फिर अमेरिका में बंदूक संस्कृति पर बहस शुरू हो गई है. ऑरलैंडो की घटना में 50 लोग मारे गए थे जबकि 58 अन्य घायल हुए. इसे 9/11 के बाद की सबसे बड़ी हिंसक वारदात कहा जा रहा है.
लेकिन इतनी बड़ी घटना के बाद भी बीते हफ्ते अमेरिकी संसद में शस्त्र नियंत्रण के लिए लाए गए प्रस्ताव बुरी तरह गिर गए. सीनेट में इस संबंध में चार प्रस्ताव पेश किए गए थे, लेकिन चारों ही प्रस्ताव सीनेट में आगे बढ़ाए जाने के लिए जरूरी न्यूनतम 60 वोट हासिल नहीं कर पाए. इनमें से एक प्रस्ताव यह भी था कि किसी व्यक्ति को बंदूक बेचे जाने से पहले उसकी पृष्ठभूमि की गहराई से जांच की जाए. इसके अलावा आए प्रस्तावों में पृष्ठभूमि जांच तंत्र के लिए वित्तीय कोष बढ़ाने, आतंकी या अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों की पृष्ठभूमि जांचने के लिए ज्यादा समय देने और आतंकी निरीक्षण सूचियों में दर्ज लोगों को बंदूकें न बेचे जाने की बात कही गई थी.
सवाल उठता है कि पूरी दुनिया को झकझोर देने वाली ऐसी घटनाओं के बावजूद अमेरिका में शस्त्र नियंत्रण पर होने वाली चर्चा किसी ठोस मुकाम पर क्यों नहीं पहुंचती.
अमेरिका में बंदूक रखना उतना ही आसान है जैसे भारत में लाठी-डंडा रखना. यहां 88.8 फीसदी लोगों के पास बंदूकें हैं जो दुनिया में प्रति व्यक्ति बंदूकों की संख्या के लिहाज से सबसे बड़ा आंकड़ा है. यही वजह है कि प्रति 10 लाख आबादी पर सरेआम गोली चलाने (मास शूटिंग) की घटनाएं अमेरिका में सबसे ज्यादा हैं. 2012 में इनकी दर 29.7 रही. दिसंबर 2012 में सैंडी हुक स्कूल में हुई मॉस शूटिंग के बाद अमेरिका में ऐसी कुल 998 घटनाएं हो चुकी हैं. इनमें 1105 लोग मारे गए हैं और 3929 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं. यहां सिर्फ उन्हीं घटनाओं की बात हो रही है जिनमें चार या चार से ज्यादा लोगों को या तो निशाना बनाया गया था या फिर इतने ही लोगों की जान गई थी. ऐसे मामलों की संख्या बहुत ज्यादा मानी जाती है जो दर्ज ही नहीं हो पाते. मास शूटिंग के अलावा अमेरिका में बंदूक से खुदकुशी के मामले भी सबसे ज्यादा हैं. 2013 में ऐसी 21 हजार से भी ज्यादा घटनाएं सामने आईं.
अमेरिका में बंदूक संस्कृति की जड़ें इसके औपनिवेशिक इतिहास, संवैधानिक प्रावधानों और यहां की राजनीति में देखी जा सकती हैं. कभी ब्रिटेन के उपनिवेश रहे अमेरिका का इतिहास आजादी के लिए लड़ने वाले सशस्त्र योद्धाओं की कहानी रहा है. बंदूक अमेरिका के आजादी के सेनानियों के लिए आंदोलन का सबसे बड़ा औजार रही. इसलिए यह नायकत्व और गौरव की निशानी बन गई.
यही वजह है कि जब नागरिक अधिकारों को परिभाषित करने के लिए 15 दिसंबर 1791 को अमेरिकी संविधान में दूसरा संशोधन हुआ तो उसमें बंदूक रखने को एक बुनियादी अधिकार माना गया. इस संशोधन में कहा गया, ‘राष्ट्र की स्वाधीनता सुनिश्चित रखने के लिए हमेशा संगठित लड़ाकों की जरूरत होती है. हथियार रखना और उसे लेकर चलना नागरिकों का अधिकार है जिसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए.’ अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन का भी कहना था कि बंदूक अमेरिकी नागरिक की आत्मरक्षा और उसे राज्य के उत्पीड़न से बचाने के लिए जरूरी है. यही वजह है कि जब भी बंदूकों पर लगाम लगाने की बात होती है तो इसे एक तरह से संविधान पर मंडरा रहे खतरे की तरह पेश किया जाता है.
संवैधानिक व्याख्या को बदलने की अड़चन के बीच अमेरिका की शक्तिशाली हथियार लॉबी भी हथियारों पर नियंत्रण के प्रयासों की मुखर विरोधी है. इनमें नेशनल राइफल एसोसिएशन (एनआरए) नाम सबसे ऊपर आता है. इसका अनौपचारिक नारा ही है कि ‘बंदूकें किसी को नहीं मारतीं, लोग एक-दूसरे को मारते हैं.’ सदस्यों की संख्या 50 लाख होने की वजह से इस संगठन का राजनीतिक वजन भी खासा है. विधायिका के स्तर पर हथियार कानूनों को सख्त बनाने की कोशिशों को रोकने के लिए यह हथियार समर्थक जनप्रतिनिधियों की चुनाव लड़ने और जीतने में मदद करता है. इसने बाकायदा एक ‘पॉलिटिकल विक्ट्री फंड’ बना रखा है. एनआरए सदस्य और अधिकारी इंटरनेट और सोशल मीडिया खूब पर सक्रिय रहते हैं. वे संवैधानिक अधिकार और नागरिक आजादी का हवाला देकर हथियार कानूनों को सख्त बनाने के पैरोकारों की जमकर खिंचाई करते हैं. पिछले साल ओबामा ने इस संगठन का नाम लिए बगैर कहा था, ‘विचार करें कि क्या आपका संगठन आपके विचारों का प्रतिनिधित्व करता है.’
2012 में सैंडी हुक में गोलीबारी की घटना के बाद हथियार कानूनों को सख्त बनाने की दिशा में कुछ ठोस प्रयास हुए थे. लेकिन वे सफल न हो सके. तब भी सीनेट में हथियार कानूनों को सख्त बनाने के प्रस्ताव गिर गए थे. रिपब्लिकन पार्टी के नेता ऐसे बदलाव के मुखर विरोधी हैं. इस समय अमेरिकी कांग्रेस में रिपब्लिकनों का दबदबा है. एनआरए की तरह वे भी मानते हैं कि बंदूक रखना और इसे लेकर चलना आत्मरक्षा के लिए जरूरी है.
जहां तक आम जनता की बात है तो हथियार कानूनों को सख्त बनाने पर उसकी राय बंटी हुई है. प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण के मुताबिक बीते 20 वर्षों में बंदूक पर नियंत्रण के बजाय जनमानस इस विचार की तरफ ज्यादा झुका है कि बंदूक रखना हर शख्स का अधिकार है. इसमें यह भी पता चला है कि हथियारों का समर्थन करने वालों में श्वेत आबादी (जिसके राजनीतिक रूप से रुढ़िवादी होने की संभावना ज्यादा होती है), रिपब्लिकन या ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जिन्होंने स्नातक तक पढ़ाई नहीं की है. पिछले साल जुलाई में आए इस सर्वेक्षण के मुताबिक सैंडी हुक जैसी घटना ने भी लोगों की सोच में कोई बदलाव नहीं किया है.
साफ है कि जब तक इन हालात में कोई बदलाव नहीं होता तब तक गोलीबारी की ये घटनाएं नियमित अंतराल पर होती रहेंगी. जैसा कि ऑरलैंडो की घटना के बाद अपनी संपादकीय टिप्पणी में अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स का कहना था कि आज ऑरलैंडो है तो कल कोई और शहर होगा.