नौटियाल ने बैठाया हिंदी – उर्दू में तालमेल

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स्मृति शेष : स्व. नंदकिशोर नौटियाल जी (1931 – 2019), संपादक, पत्रकार एवं लेखक की जयंती के अवसर पर डॉ. राममनोहर त्रिपाठी (1936 – 2002), कवि – साहित्यकार – पत्रकार एवं पूर्व मंत्री महाराष्ट्र का 1999 में लिखा लेख।

इस आधी शताब्दी में हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में दो दर्जन ऐसे प्रमुख पत्रकार हुए जिनकी प्रखर पत्रकारिता की चमक सेठ-सेक्टर के अखबारों को चमकाती-दमकाती रही। वे कितने स्वतंत्र पत्रकार रह पाये यह किसी से छिपा नहीं रह पाया। ये सारे बड़े अखबार के साथ जुड़े हुए बड़े दिखते थे। बहुतों के साथ ऐसा ही हुआ है, कुछ अपवाद हैं। अपवाद वे ही हैं, जिनके विचारों की धारा किसी भी स्थान में बोझिल नहीं हुई। ऐसे लोगों में नंदकिशोर नौटियाल हैं, जिन्होंने सफलतापूर्वक अपनी पत्रकारिता की आधी शताब्दी पूरी की। मेरा नौटियालजी का परिचय काफ़ी पुराना है। मगर उस परिचय की कोई तारीख मेरे पास नहीं है। असली परिचय तो उनसे मेरा इसी मुंबई शहर में हुआ, जब वे हिंदी ब्लिट्ज़ में आये।

सन 1962 में सुप्रसिद्ध पत्रकार स्व. ख्वाजा अहमद अब्बास और मैंने ब्लिट्ज़ के मालिक और संपादक आर.के. करंजिया को सुझाव दिया कि हिंदी में भी ब्लिट्ज़ निकालना चाहिये। पहले तो उन्हें यह शंका हुई कि हिंदी का साप्ताहिक अख़बार चलेगा कि नहीं। मगर उस वक़्त एक ऐसे हिंदी अख़बार की ज़रूरत थी जो पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों का समर्थन करे। इसलिए हिंदी ब्लिट्ज़ निकाला गया। इसके पहले डॉ. ए.वी. बालिगा के प्रयास से दिल्ली से लिंक नाम का अख़बार निकल चुका था। लिंक प्रकाशन की हिंदी योजना आगे नहीं बढ़ी। बाद में इसी लिंक से अलग होकर अयूब सैयद करंट के ये ऐसे संदर्भ हैं, जिन्हें प्रगतिशील पत्रकारिता के साथ देखा है। उस दर्पण में हम प्रगतिशील पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल के संघर्षों के कई प्रतिबिंब देख सकेंगे।

सन् 1962 की शुरुआत में हिंदी ब्लिट्ज़ निकला। उसमें जो युवा पत्रकार थे उन सबसे प्रायः मिलना-जुलना होता रहता था। ख़ास तौर पर मुनीश सक्सेना से ज़्यादा मुलाक़ातें होती थीं। ठेठ लखनौआ नाज़ुक मिज़ाज के नौजवान थे मुनीश। उनके साथ नंदकिशोर नौटियाल। नौटियालजी की मेरी दोस्ती पान खाने के कारण और प्रगाढ़ हुई। मुझ से ज़्यादा वे पान के ऐसे शौकीन कि थोड़े दिनों में मैंने उनका लोहा मान लिया। वे शहर के सारे श्रेष्ठ पान के दुकानदारों को जानते हैं। उनकी दोस्ती में पान-स्पर्धा में मैं ज़्यादा पान खाने लगा और नौटियालजी ने एक झटके से पान खाना बंद कर दिया। बड़ी दृढ़ इच्छा शक्तिवाले हैं नौटियालजी, जबकि मैंने दर्जनों बार पान छोड़ा और फिर शुरू कर दिया। एक प्रसंग याद आता है।

नौटियालजी ने कई महीनों से पान खाना छोड़ रखा था। मेरी बड़ी बेटी मंजू का विवाह था। रात को उसकी बिदाई हो रही थी। सारे घर में उदासी छायी हुई थी। उस अवसाद से मैं भी कहां बचा था फिर भी काफ़ी संयम था, ताकि अन्य बच्चों पर बिदा-बेला का अवसाद न दिखे। बेटी बिदा हो गयी। बहुत रोकने के बाद भी मेरी आंखों में आंसू छलक आये। फिर एकांत में मैं जाकर खड़ा हो गया। मुझे पता ही नहीं चला कि मेरे पीछे और कौन है। मुड़कर देखा तो नौटियालजी खड़े थे। मैं उस समय उनसे अपनी सिसकियां और आंसू छिपा नहीं पाया था। उन्होंने मेरे कंधों पर हाथ रखते हुए बड़े भाई की तरह केवल धीरज ही नहीं दिया, बल्कि यह विश्वास भी दिलाया कि वे मेरे प्रिय तो हैं ही बड़े भाई भी हैं। फिर उन्होंने मेरा मन बदलने के लिए और उस क्षणिक अवसाद से उबरने के लिए प्रस्ताव रखा, “यार, बेटी की शादी-बिदाई हो गयी। अब चलो मैं भी आज तुम्हारे साथ पान खाने चलता हूं। उन्होंने उस दिन केवल मेरा दुःख हल्का करने के लिए अपना व्रत तोड़ दिया।

पिछले तीस-पैंतीस वर्षों में अनेक उतार-चढ़ाव मैंने देखे हैं। उन सबके साक्षी केवल नंदकिशोर नौटियाल रहे हैं। राजनैतिक-सामाजिक मित्रों के मामले में मैं काफी संपन्न मित्र-परिवार को समेटे हुए चलता रहा हूं। एक लंबी फेहरिस्त है मेरे मित्रों की जो मुझ पर हमेशा कृपालु रहे हैं और सुख-दुःख में साथी भी रहे हैं मगर नौटियालजी सखा, सहचर, सहयोगी और संबल के रूप में मेरे साथ रहे हैं। उनके ही कारण मैं दोपहर नाम के सांध्य दैनिक में संपादकी करने गया था। मेरी तुनकमिज़ाजी से वे पूर्ण परिचित हैं। इसलिए एक दिन दोपहर छोड़ कर घर चला आया। हालांकि इसके मालिक श्री सी.जी. जोशी मेरे और नौटियालजी के अभिन्न मित्रों में हैं। नौटियालजी ने कहा, “भाई नये संपादक के आने तक तो काम देखिो। यह बड़े भाई का आदेश जैसा था सो मैंने एक महीने और काम किया।

पत्रकारिता की पत्रध्वनि
नौटियालजी अवढरदानी पत्रकार हैं। वे पत्रकारों, लेखकों और साहित्यिकों की सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। कभी किसी का टिकट निकालना है तो उसका भुगतान नौटियालजी कर देंगे। कभी कोई बीमार है तो उसके इलाज की व्यवस्था वे जरूर करेंगे। पत्रकारों में इतना जल्दी द्रवित होने वाला कोई दूसरा व्यक्ति अब तक मुझे नहीं दिखा। उनके व्यक्तित्व में करुणा जहां हिलोरें लेती हुई दिखती है उस प्रवाह में कभी-कभी सख्त पथरीली मान्यताएं भी छिपी हुई हैं। गंगोत्री में जब गंगा बहती है उसका निर्मल पानी पुण्यतोया होता है मगर गौर से देखिये तो उस धारा में कई-कई पत्थर भी बहते हुए दिखायी पड़ते हैं मगर उन पत्थरों में शालिग्राम नहीं होते, जैसे कि नर्मदा में मिलते हैं। हां, शंकर के पिंड जैसे गोलाकार, अंडाकार बहुत सारे पत्थर बहते रहते हैं। इन पत्थरों में भी लोगों को देव दिखते हैं। गंगा में जैसे पत्थर और पानी दोनों बहते हैं वैसे ही नौटियालजी की व्यक्तित्व-गंगा प्रकट में कभी-कभी बड़े ऊबड़-खाबड़ पत्थरों के भी दर्शन होते हैं, जब वे कुपित हों, असहमत हों अथवा ऊल-जलूल बातें करनेवाले स्थापित होने का स्वांग कर रहे हों वहां वे उभर-उभरकर दिखने लगते हैं, मगर किसी के सिर पर नहीं पड़ते। यह तो रही उनकी एक झांकी, जिसका दर्शन लोग करते रहे हैं। इस झांकी में मेरी आंकी हुई केवल कुछ साधारण बातें हैं जो उनके समग्र व्यक्तित्व को समझने के लिए अपरिहार्य हैं। उनका जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है वह है पत्रकारिता की नयी भाषा को आम लोगों तक पहुंचाना।

आम-फ़हम शब्द उर्दू का है। साधारण जन-भाषा, जिसमें मामूली लोग संवाद स्थापित करते हैं वहीं अख़बार की भाषा होनी चाहिये। उसे आप आम फ़हम कहें या जनभाषा कहें, नौटियालजो उस पर शुरुआती दौर से ही ज़ोर दे रहे हैं। सन् 1950 के बाद समाचारों में अनुवाद की भाषा आविष्कृत हुई थी वह काफी क्लिष्ट हो रही थी। संस्कृतबहुल शब्दावली आम लोगों के गले नहीं उतर रही थी। उस समय अख़बारों के माध्यम से जो जनभाषा का एक आंदोलन चल रहा था, उसे बड़े-बूढ़े पसंद नहीं कर रहे थे। मगर उनके रुझान को धक्का भी न लगे और जनभाषा भी अख़बारों को मिले, इसके लिए बड़ी कारीगरी के साथ तार पर कसरत करनी पड़ती थी। नौटियालजी ने यह काम शुरू किया दिल्ली के साप्ताहिक हिन्दी टाइम्स से और उसे बाकायदा प्रतिष्ठापित किया हिंदी ब्लिट्ज़ में।

यही कारण है कि नौटियालजी के ज़माने में कभी हिंदी ब्लिट्ज़ तीन लाख तक बिकने लगा था। यह भाषा का कमाल था जो जादू की तरह सर पर चढ़कर बोलता था। उर्दू के शब्द अपने वास्तविक तलफ्फुज़ के सौंदर्य के साथ हिंदी में विराजे रहें इसका भी ध्यान हिंदी ब्लिट्ज़ में किया जाता था। कई साल पहले उन्होंने नूतन सवेरा साप्ताहिक प्रकाशित किया। इस अख़बार में भी भाषा के मामले में हिंदी ब्लिट्ज़ का ही संस्कार क़ायम रहा। अख़बार की भाषा सरल-सुबोध और आम आदमी की समझ में आने लायक होगी तभी उस अख़बार को जन-स्वीकृति मिलेगी और जिनों के लिए पत्र समर्पित है उसकी पूर्ति भी होगी। साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए भले ही यह शर्त लागू न हो, पर समाचार पत्रों की भाषा सहज ग्राह्य हो इसका आग्रह नौटियालजी ने हमेशा बनाये रखा। इसके लिए उन्हें कई विद्वानों की तीखी आलोचनाएं भी सुननी पड़ीं, मगर वे अपने से कभी विचलित नहीं हुए।

उसका एक लाभ भी हुआ। हिंदी और उर्दू के बीच अपरिचय के विंध्याचल अब नहीं रहे। इससे निश्चय ही हिंदी के विकास को गति मिली है, जिससे जब सभी हिंदी पत्रकारिता की भाषा पर कोई शोधग्रंथ लिखा जब जायेगा, तो ज़रूर उसमें नंदकिशोर नौटियाल के प्रदेय का स्मरण किया जायेगा। उनकी इस दूरदर्शिता का मैं हमेशा क़ायल रहा हूं। हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन तभी मिलेगा, वह उर्दू से परहेज़ न करे। उसके भाषा विषयक गुणों को हिंदी में समाहित करने का प्रयास नौटियालजी ने हमेशा किया है।

अब नौटियालजी की भाषा पत्रकारिता में पूर्णत प्रतिष्ठित हो चुकी है। मगर नयी पीढ़ी उसके इतिहास से परिचित नहीं है कि अब जो भाषा का रथ चलता हुआ दिखायी पड़ रहा है वह सपाट रास्ते से दौड़ता हुआ अख़बारों के दफ़्तर नहीं पहुंचा, बल्कि ऊसर, बंजर, ऊंची-नीची, ऊबड़-खाबड़ ज़मीन को हमवार करनेवाले लोग थे जिसमें और भी कई लोग थे जो आज हमारे बीच में नहीं हैं, कुछ हैं वे, बुढ़ापे में चुपचाप अपने घरों में बैठे हुए हैं। मगर नौटियालजी अपनी पत्रकारिता की आधी शताब्दी मनाने जा रहे हैं। नौटियालजी ख़र क्या मनायेंगे, वह तो हम सभी लोग उन्हें प्रतीक मानकर इस ग्रंथ के रूप में आधी शताब्दी की हिंदी पत्रकारिता का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहे हैं और इसी के साथ भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता भी अपनी पूर्णता में झलकेगी।

मैं कभी-कभी सोचता हूं कि नौटियालजी कवि क्यों नहीं बने। उन्हें कवि का हृदय मिला है पर कभा तुकबंदी नहीं की। वे देशभर के कवियों, शायरों के मित्र हैं और सैकड़ों कविताएं और शेर भी उन्हें याद हैं, पर कविता की ओर उनकी क़लम क्यों नहीं चली दूसरा उत्तर भी सामने है कि इस परम भावुक व्यक्ति ने शुरू से ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम गद्य ही चुना और उसे ही शृंगार प्रदान किया। कभी-कभी अग्रलेख लिखते समय उनकी भावुकता छलक-छलक पड़ती है।

नौटियालजी अपनी तरुणाई के दिनों से ही मार्क्स बाबा के मुरीद हो गये। लिहाज़ा कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों से उनकी दोस्ती जगजाहिर है। मगर लाल झंडे की वह लालिमा बजरंगबली के झंडे से कैसे मेल खा गयी, यह कम आश्चर्य की बात नहीं। पिताजी शुद्ध संस्कारी गढ़वाली कुलीन ब्राह्मण, परंपराओं से बंधे हुए वैष्णव और मां गृहस्थ धर्म के आंगन में तुलसी के बिरवे जैसी, साथ ही ममता की प्रतिमूर्ति। फिर उनका बेटा लाल झंडा कंधे पर उठाये हुए कैसे चल सकता था। लिहाजा हुआ भी यही यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि वे जोड़ना और छोड़ना दोनों बखूबी जानते हैं। कई चीजें छोड़ दीं। कई लोगों से जुड़े। बड़े-बड़ों से जुड़े और ख़ामियां दिखीं। नापसंद लगे तो छोड़ दिया। बेहद फक्कड़पन लेकिन उसमें छिपा हआ जुझारू अक्खड़पन नौटियालजी में है। इसीलिए उनके इन्हीं गुणों पर उनके हज़ारों दोस्त उन पर फ़िदा रहते हैं। मैं भी उनमें से एक हूं जो फ़िदा हूं। वे दोस्त हैं ऐसे कि उन पर कोई भी नाज़ कर सकता है और सिर्फ नाज़ नहीं, भरोसा भी कर सकता है।

साभार : हिंदी पत्रकारिता के बढ़ते चरण (अमन प्रकाशन)