शायद सभी भाषाविद चुनाव के समय में “वनवास” पर जाने की इच्छा रखते होंगे । जिस प्रकार राजनेता भाषा और शब्दों का निम्नस्तरीय प्रयोग करते रहते हैं, वह वास्तव में भाषा और शब्दों का अपमान ही कहा जा सकता है । किसी भी राजनेता को थोडी सी भी लज्जा का अनुभव नहीं होता चुनावी काल में । मैं जीवन भर बोलने का ही काम करता रहा हूं, और अधिकृत रूप से अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि कम बोलने से अधिक बोलना घातक हो जाता है । ज़्यादा बोलने के चक्कर में, व्यक्ति कुछ भी बोल जाता है और बाद में कभी कभी, कोई कोई व्यक्ति पछताता भी है । परंतु राजनेता हमेशा मुस्कुराते रहते हैं और कभी भी न पछताते हैं, न लज्जित होते हैं । जो लोग उनके वक्तव्यों पर हंसते और ताली बजाते रहते हैं उन्हें या तो केवल हंसने और ताली बजाने के लिये ही बुलाया जाता है, या वे कुछ समझे बिना ही केवल वेतन प्राप्त “नौकर” की भांति अपनी “ड्यूटी” पूरी करते रहते हैं । मैं न तो टेलीविज़न देखता हूं, न किसी चुनावी प्रचार सभा में ही उपस्थित रहता हूं, परंतु अनेक समाचार पत्र तो हर दिन पढता हूं । उनमें प्रकाशित वक्तव्यों पर मैं खीज उठता हूं । सबसे बडी बात यह होती है कि अगर कुछ लोग जाने-अनजाने या मजबूरी में हंस देते हैं और ताली बजा देते हैं, तो बोलने वाले की इच्छा कुछ और अधिक बोलने की होने लगती है और इसी इच्छा के चलते हुए वह बेवकूफ़ी भरी कुछ भी बात बोलने लगता है ।
यह बात किसी एक नेता पर लागू नहीं होती । सभी राजनीतिक नेता चुनावी काल में किसी भी दूसरे नेता के बारे में असभ्य और अशोभनीय भाषा और शब्दों का नाटकीय अंदाज़ में प्रयोग करने लगते हैं । किसी “मिमिक्री” कलाकार की तरह दूसरे नेता की भद्दी नकल करना इस चुनावी दौर में सभी नेतागण अपना सबसे आवश्यक कार्य समझने लगते हैं । अनेक बार ऐसे नेता आलोचना के शिकार होते रहते हैं और फ़िर मीडिया को दोष देते हुए कह देते हैं कि मेरे वक्तव्य को तोड-मरोड कर प्रस्तुत कर दिया गया है, या उनका दल अपनी सफ़ाई में कह देता है कि यह उस नेता का व्यक्तिगत मत है । मैं मानता हूं कि कुछ क्षण के लिये कुछ लोगों का ऐसी हरकतों से शायद मनोरंजन हो जाता हो, परंतु यह एक सचाई है कि अधिकांश नागरिक ऐसी बातों को पसंद नहीं करते और आपस में चर्चा करते हुए, इन हरकतों की निंदा भी करते रहते हैं ।
मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, मोरारजी देसाई, पी0 वी0 नरसिंहाराव, अटल बिहारी वाजपेयी, और ड़ा0 मनमोहन सिंह को ऐसी निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग करते नहीं सुना । उस समय के अन्य लोकप्रिय और चर्चित नेता आचार्य कृपलानी, ड0 राम मनोहर लोहिया, मधु दंडवते, जार्ज फ़र्नांडिस, वी0 के0 कृष्णामेनन, कामरेड डांगे, मधु लिमये, भाई बर्धन आदि भी कभी निम्नस्तरीय भाषा और शब्दों का प्रयोग करते हुए नहीं देखे और सुने गए । इनमें से किसी को बोलते हुए नाटक करते हुए भी मैंने नहीं देखा ।
चुनाव आयोग या कोई सरकारी विभाग इस प्रकार की बढती हुई फ़ूहडता के विरुद्ध कोई कार्र्वाई क्यों नहीं करता, यह मुझे मालूम नहीं है; लेकिन “बोलना – एक कला” विषय पर अनगिनत व्याख्यान देश भर में देकर भाषा और शब्दों के प्रभावशाली प्रयोग के बारे में अनेक वर्षों से जो कुछ मैं लोगों को समझाता आया हूं, उसका कोई असर कम से कम आजकल के राजनेताओं पर तो नहीं पड सका है । वैसे भी राजनेता मेरा व्याख्यान सुनने के लिये समय कहां निकाल पाते हैं । मैंने अनेक बडे बडे नेताओं के लिये समय समय पर भाषण लिखे हैं और अनेक अन्य लोग भी भाषण लिखते रहे हैं, परंतु फ़िल्मी संवाद और नाटकीय प्रस्तुतिकरण से भरे भाषण कभी लिखे नहीं गये ।
हां, जबसे फ़िल्मी संवाद लेखकों को भाषण लिखने के लिये बुलाया जाने लगा, तबसे भाषा और शब्दों का निम्नस्तरीय प्रयोग कुछ अधिक बढ गया है । संयमित, सुश्राव्य, शालीन और सभ्य भाषा तथा शब्दों को राजनेता भूलने ही लगे हैं और इसीलिये शायद अपनी और अपने पद की मर्यादा को भूल कर बहुत ही निम्नस्तरीय बनने लगी है, आजकल के अधिकांश राजनेताओं की चुनावी भाषा ।
किशन शर्मा,
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