चमोली: जोशीमठ संघर्ष समिति ने सरकार के सामने अपने कुछ बिंदु रखे हैं। समिति का कहना है कि उत्तराखंड के सीमांत पर बसे पौराणिक-ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-पर्यटक नगर जोशीमठ के अस्तित्व के लिये और अपने जीवन व भविष्य के प्रति आशंकित लोगों का संघर्ष जारी है। हमारे पुरखे सिर्फ प्राकृतिक सौंदर्य की वजह से ही इस क्षेत्र नहीं बसे हहोंगे। प्रकृति ने इसे और भी इतनी नेमतें दी थी, इसी वजह से लोग सैकड़ों वर्षों में देश के बहुत से हिस्सों से एक बार यहां आए और यहीं के होकर रह गए।
अभी तक की हमारी स्मृति में पिछले पचास से सौ वर्षों में हमने बहुत से प्रकृति प्रेमियों, आध्यात्मिक रुचि के लोगों को यहां आने के बाद यहीं का होते हुए देखा है। देश दुनिया से आज जो समर्थन, प्रेम, सहानुभूति जोशीमठ को मिल रही है, उसके मूल में इस नगर की सबको अपना बना लेने की विशेषता भी है। अपने इसी प्यारे नगर को बचाने की हमारी लड़ाई थी और है भी। लेकिन, लोभ और स्वार्थ की वशीभूत सरकार-सत्ताओं ने इस नगर के अस्तित्व पर मंडराते खतरे को न देखा और ना ही सुना।
23 दिसंबर 2003 को हमने इसी आशंका के चलते एक पत्र तत्कालीन राष्ट्रपति को दिया था। उसमें हमने जय प्रकाश कम्पनी की विष्णुप्रयाग परियोजना का उदाहरण देते हुए कहा था कि यदि जोशीमठ के नीचे इसी तरह सुरंग आधारित परियोजना (जो तब प्रस्तावित भर थी) बनाई जाएगी तो इस नगर का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। राष्ट्रपति के यहां से सम्बंधित परियोजना निर्मात्री कम्पनी को सम्बोथित पत्र भी आया, जिसमें हमारी आशंकाओं का समाधान करने को कहा गया। लेकिन, परियोजना निर्माता कंपनी ने हमारी आशंकाओं और राष्ट्रपति के पत्र दोनों को ही तवज्जो नहीं दी। तब आंदोलन ही विकल्प था, जो हमने किया।
2005 में परियोजना की जन सुनवाई के समय भी हमने वही सारी आशंकाएं जोर-शोर से रखीं। कोई उत्तर नहीं मिला। हमने उस जनसुनवाई का विरोध किया, क्योंकि कंपनी के पास जनता के सवालों और आशंकाओं का कोई जवाब नहीं था। फिर परियोजना के शिलान्यास का जबर्दस्त विरोध हुआ, जिसकी परिणति हुई कि तत्कालीन मुख्यमंत्री को तमाम तैयारियों के बावजूद अपना कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। जोशीमठ में परियोजना का शिलान्यास करने में विफल रहने पर देहरादून में शिलान्यास कर दिया गया और शिलान्यास का पत्थर जोशीमठ की छाती में गाड़ दिया गया।
दो साल लगातार परियोजना बंद करने के लिए आंदोलन चलता रहा। 24 दिसंबर 2009 को जब इस परियोजना की सुरंग में टीबीएम के ऊपर बोल्डर गिरने से, मशीन फंस गयी और उस जगह से 600 लीटर पानी प्रति सेकंड निकलने लगा। यह जोशीमठ के स्रोतों का पानी था। सुरंग से बहते पानी से खतरे को भांपते हुए जोशीमठ में लम्बा आंदोलन चला। आंदोलन के परिणामस्वरूप तत्कालीन केंद्रीय ऊर्जा मंत्री, जिला प्रशासन की मध्यस्थता में हमारा परियोजना निर्माता कंपनी एनटीपीसी समझौता हुआ। समझौते के तहत एनटीपीसी को न सिर्फ जोशीमठ के पेयजल की दीर्घकालिक व्यवस्था करनी थी। बल्कि, हमारे घर-मकानों के बीमा भी करना था, ताकि यदि मकानों को नुकसान हो तो भरपाई भी हो सके।
समझौते की यह मांग इसलिए पूरी नहीं हुई क्योंकि उसी समझौते के तहत एक हाई पावर कमेटी को परियोजना की समीक्षा भी करनी थी। किन्तु वह कमेटी कभी बैठी ही नहीं। इस तरह जोशीमठ के भविष्य और अस्तित्व पर तभी प्रश्नचिन्ह लग गया था। एनटीपीसी और सरकार का बार-बार कहना है कि परियोजना की सुरंग जोशीमठ से दूर है। हमारा सवाल है कि बाईपास सुरंग कहां है? उसकी स्थिति जोशीमठ के नीचे ही है और वह विस्फोटों के जरिये ही बनी है। लोगों को आशंका है कि उसमें कुछ दिन पहले तक लगातार विस्फोट किये जा रहे थे, जो जोशीमठ में आज हो रहे भू धंसाव का मुख्य कारण हैं। शेष कारणों ने इस प्रक्रिया को तीव्र करने में योगदान किया है।
इसीलिए जोशीमठ की जनता नगर की तबाही के लिए एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना को जिम्मेदार समझती है और इसे तत्काल बन्द करने की मांग इसीलिए प्रमुख और प्राथमिक मांग ह। अब जब जोशीमठ के अधिकांश घरों में दरारें आ चुकी हैं और कुछ भूगर्भ वैज्ञानिकों ने भी जनता की ही तरह, बड़ी आपदा की आशंका व्यक्त की है, तब अपना जीवन, सम्पत्ति व भविष्य की सुरक्षा की चिंता ने जनता को पुनः सड़कों पर ला दिया है। यदि सरकार व प्रशासन समय रहते जनता की सुन लेते और कार्यवाही करते तो यह नौबत नहीं आती।
पिछले 14 महीने से लगातार इसपर बोलते-लिखते-लड़ते रहने के बावजूद सरकार नहीं जागी और आज हालात काबू से बाहर हैं। हमें उम्मीद थी कि आज जब दुनिया भर में जोशीमठ को लेकर लोग चिंतित हैं, तब सरकार कुछ संवेदनशील होकर तथा राजनीतिक संकीर्णता से ऊपर उठकर कार्य करेगी। इसी उम्मीद के साथ कल तमाम पुराने मतभेद भुलाकर,, जनता के तमाम आक्रोश के बावजूद संघर्ष समिति ने शांतिपूर्ण बातचीत का प्रस्ताव स्वीकार किया। संघर्ष समिति ने जनता के व्यापक हितों व आपदा की व्यापकता के मद्देनजर पांच बिंदु रखे थे। इन बिंदुओं पर उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन सचिव से पहले ही चर्चा की जा चुकी थी।
मुख्यमंत्री के समक्ष रखे गए पांच बिंदु
1.एनटीपीसी की परियोजना पर पूर्ण रोक की प्रक्रिया प्रारंभ हो।
2.हेलंग-मारवाड़ी बाईपास पूर्णतया बन्द हो।
3.एनटीपीसी को पूर्व में हुए 2010 के समझौते को लागू करने को कहा जाय, जिससे घर-मकानों का बीमा करने की बात प्रमुख है।
4.जोशीमठ के समयबद्ध विस्थापन, पुनर्वास एवं स्थायीकरण के लिये, जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति को शामिल करते हुए एक अधिकार प्राप्त उच्च स्तरीय कमेटी का गठन हो।
5.जोशीमठ में पीड़ितों की तत्काल आवास भोजन व अन्य सहायता हेतु एक समन्वय समिति बने, जिसमें स्थानीय प्रतिनिधियों को शामिल किया जाय। लोगों के घर मकानों का आंकलन करते हुए मुआवजा व उनके स्थाई पुनर्वास की प्रक्रिया तुरन्त प्रारंभ की जाए।
इन बिंदुओं पर ही मुख्यमंत्री के साथ बातचीत व निर्णय होना था। विस्तृत चर्चा क्यांेकि आपदा सचिव से हो चुकी थी, इसलिए हमारी उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री की मौजूदगी में इनपर निर्णय हो। इसीलिए मुख्यमंत्री के ओएसडी से भी सुबह ही बात हो चुकी थी। उन्हें हमारी मांगें के संदर्भ में ब्रीफ किया जा चुका था। देहरादून से जोशीमठ मुख्यमंत्री के आने का यही कारण भी लगता था कि वे ठोस निर्णय की घोषणा करने ही आ रहे है। किंतु हमारी प्रार्थना का यही उत्तर मिला कि देहरादून जाकर बैठक कर ही तय करेंगे।
संघर्ष समिति ने इसपर यही निर्णय लिया है कि जब तक सभी विस्थापित होने वालों के साथ एक समान न्याय नहीं हो जाता व जब तक उपरोक्त मांगों पर ठोस जमीनी कार्यवाही नहीं दिखती, तब तक आंदोलन जारी रहेगा। संघर्ष समिति सरकार से पुनः यह मांग/अपेक्षा/प्रार्थना करती है कि इस आपदा की घड़ी में विशाल हृदय से, मानवीय दृष्टिकोण से, दलीय सीमाओं से ऊपर उठकर पीड़ित जनता के हित मे सबको साथ लेकर चलते हुए कार्य करे। हमारा मानना है कि सिर्फ प्रशासनिक मशीनरी के भरोसे, इस बड़ी आपदा से नहीं निपटा जा सकता। पूर्व की आपदाओं का भी यही सबक है। हम कंधे से कंधा मिलाकर चलने और सहयोग करने का प्रस्ताव बार-बार दोहराते हैं। इस नगर के व इसके निवासियों के भविष्य के मद्देनजर उत्तराखंड सरकार शीघ्र कार्यवाही करे।