उत्तराखंड : पराक्रम और वीरता के 136 गौरवशाली वर्ष, पढ़ें गढ़वाल राइफल का इतिहास

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आज के ही दिन गढ़वाल राइफल की स्थापना हुई थी। स्थापना के बाद के गढ़वाल राइफल के इतिहास को तो सभी जानते हैं, लेकिन उससे पहले भी जब हमारे वीर जवानों ने अपने युद्ध का लोहा मनाया था। ऐसे कारनामें कर दिखाए थे, जिनका नतीजा आज की गढ़वाल राइफल है। एक कॉम जो बलभद्र सिंह नेगी जैसा आदमी पैदा कर सकती है उनकी अपनी अलग बटालियन होनी चाहिए ” । अफगान युद्ध में सूबेदार बलभद्र सिंह के अद्वितीय साहस को देखकर उस समय के कमांडर इन चीफ मार्शल एसएस रॉबर्ट्स के इन्हीं शब्दों से शुरुआत होती है गढ़वाल रेजिमेंट की स्थापना की और एक ऐसे शौर्य गाथा की, जिसकी बहादूरी की कायल आज भी पूरी दूनिया है।

सूबेदार बलभद्र सिंह ने कमांडर इन चीफ को अलग से गढ़वाली रेजीमेंट बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने गढ़वालियों की अलग रेजीमेंट बनाने का प्रस्ताव तत्कालीक वायस राय लाड डफरिन के पास भेजा। अप्रैल 1887 में दूसरी बटालियन तीसरी गोरखा रेजीमेंट की स्थापना के आदेश दिए गए, जिसमें छह कंपनियां गढ़वालियों की और दो कंपनियां गोरखाओं की थी। पांच मई 1887 को चौथी गोरखा को बटालियन क्षेत्र के कालौडांडा (लैंसडौन का प्राचीन नाम), पहुंची इसके बाद में तत्कालीन वायसराय लाड लैंसडौन के नाम पर जाना गया।

thakur balbhadr singh negi

1891 में 2-3 गोरखा रेजीमेंट की दो कंपनियों से एक गोरखा पलटन 2-3 क्वीन अलेक्टजेन्टास आन (बटालियन का नाम) खड़ी की गई और शेष बटालियन को दोबारा नए बंगाल इन्फैंट्री की 39 वी गढ़वाल रेजीमेंट के नाम से जाना गया। बैज से गोरखाओं की खुखरी हटाकर उसका स्थान फोनिक्स बाज को दिया गया। इसने गढ़वाल राइफल्स को अलग रेजीमेंट की पहचान दी। 1891 में फोनिक्स का स्थान माल्टीज क्रास ने लिया। इस पर द गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट अंकित था। बैज के ऊपर पंख फैलाए बाज थे, यह पक्षी शुभ माना जाता था। इससे गढ़वालियों की सेना में अपनी पहचान का शुभारंभ हुआ।

अफगान युद्ध के दौरान कमांडर इन चीफ सूबेदार बलभ्रद सिंह की वीरता के कायल होग गए, यही वजह रही कि सूबेदार बलभद्र सिंह ने कमांडर इन चीफ को अलग से गढ़वाली रेजीमेंट बनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने गढ़वालियों की अलग रेजीमेंट बनाने का प्रस्ताव तत्कालीक वायस राय लाड डफरिन के पास भेजा।

अप्रैल 1887 में दूसरी बटालियन तीसरी गोरखा रेजीमेंट की स्थापना के आदेश दिए गए, जिसमें छह कंपनियां गढ़वालियों की और दो कंपनियां गोरखाओं की थी। पांच मई 1887 को चौथी गोरखा को बटालियन क्षेत्र के कालौडांडा (लैंसडौन का प्राचीन नाम), पहुंची इसके बाद में तत्कालीन वायसराय लाड लैंसडौन के नाम पर जाना गया।

1891 में 2-3 गोरखा रेजीमेंट की दो कंपनियों से एक गोरखा पलटन 2-3 क्वीन अलेक्टजेन्टास आन (बटालियन का नाम) खड़ी की गई और शेष बटालियन को दोबारा नए बंगाल इन्फैंट्री की 39 वी गढ़वाल रेजीमेंट के नाम से जाना गया। बैज से गोरखाओं की खुखरी हटाकर उसका स्थान फोनिक्स बाज को दिया गया। इसने गढ़वाल राइफल्स को अलग रेजीमेंट की पहचान दी। 1891 में फोनिक्स का स्थान माल्टीज क्रास ने लिया। इस पर द गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट अंकित था। बैज के ऊपर पंख फैलाए बाज थे, यह पक्षी शुभ माना जाता था। इससे गढ़वालियों की सेना में अपनी पहचान का शुभारंभ हुआ।

19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत के सीमावर्ती अभियानों के साथ-साथ विश्व युद्धों और स्वतंत्रता के बाद लड़े गए युद्धों में भी गढ़वालियों ने अपनी वीरता और युद्ध कौशल का लोहा बनवाया। गढ़वाल राइफल में गढ़वाल क्षेत्र के सात जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, देहरादून, पौड़ी गढ़वाल और हरिद्वार के जवानों को भर्ती किया जाता है।

गढ़वाल स्काउट्स जो स्थायी रूप से जोशीमठ में तैनात हैंऔर 121 इंफ बीएन टीए और 127 इन्फ बीएन टीए (इको) और 14 आरआर, 36 आरआर, 48 आरआर बटालियन सहित प्रादेशिक सेना की दो बटालियन भी रेजिमेंट का हिस्सा हैं। तब से पहली बटालियन को मैकेनाइज्ड इन्फैंट्री में बदल दिया गया।

1887 तक गढ़वालियों को बंगाल इंफैंट्री और पंजाब फ्रंटियर फोर्स से संबंधित गोरखाओं की पांच रेजिमेंटों में शामिल किया गया था। सिरमूर बटालियन (बाद में दूसरा गोरखा), जिसने 1857 में दिल्ली की घेराबंदी में प्रसिद्धि हासिल की थी। उस समय उसका हिस्सा 33 प्रतिशत गढ़वाली योद्धा थे। मूल रूप से गढ़वाली योद्धाओं की हासिल की गई सभी उपलब्धियों का श्रेय गोरखाओं को दिया जाता था।

बटालियन गठन

प्रथम गढ़वाल राइफल्स-05 मई 1887 को अल्मोड़ा में गाठित और 04 नवंबर 1887 को लैंसडौन में आगमन

द्वितीय गढ़वाल राइफल्स-01 मार्च 1901 को लैंसडौन में गठित

तृतीय गढ़वाल राइफल्स- 20 अगस्त 1916 को लैंसडौन में

चौथी गढ़वाल राइफल्स – 28 अगस्त 1918 को लैंसडौन में

पांचवी गढ़वाल राइफल्स – एक फरवरी 1941 को लैंसडौन में

छठवीं गढ़वाल राइफल्स 15 सितंबर 1941 को लैंसडौन में

सातवीं गढ़वाल राइफल्स- एक जुलाई 1942 को लैंसडौन में

आठवीं गढ़वाल राइफल्स- एक जुलाई 1948 को लैंसडौन में

नौवी गढ़वाल राइफल्स- एक जनवरी 1965 को कोटद्वार में

दसवीं गढ़वाल राइफल्स- 15 अक्टूबर 1965 को कोटद्वार में

ग्याहवीं गढ़वाल राइफल्स- एक जनवरी 1967 को बैंगलौर में

बारहवीं गढ़वाल राइफल्स- एक जून 1971 को लैंसडौन में

तेरहवीं गढ़वाल राइफल्स- एक जनवरी 1976 को लैंसडौन में

चौदहवीं गढ़वाल राइफल्स- एक सितंबर 1980 को कोटद्वार में

सोलहवीं गढ़वाल राइफल्स – एक मार्च 1981 को कोटद्वार में

सत्रहवी गढ़वाल राइफल्स- एक मई 1982 को कोटद्वार में

अठारहवी गढ़वाल राइफल्स- एक फरवरी 1985 को कोटद्वार में

उन्नीसवी गढ़वाल राइफल्स- एक मई 1985 को कोटद्वार में

इसके अलावा गढ़वाल स्काउट्स का आठ अप्रैल 1964 को कोटद्वार में 121 इन्फ्रैंट्री बटालियन का एक अप्रैल को कोलकाता, 121 टीए का एक दिसंबर 1982 को लैंसडौन में, चौदह राष्ट्रीय राइफल्स का 14 जून 1994 को कोटद्वार और 36 राष्ट्रीय राइफल्स का एक सितंबर 1994 में, जबकि 48 राष्ट्रीय राइफल्स का पंद्रह सितंबर 2001 को कोटद्वार में गठन हुआ।