1980 में हिंदी भाषी दुनिया के गिने-चुने लोग ही बांग्ला की सुप्रसिद्ध साहित्यकार महाश्वेता देवी को जानते थे. हालांकि बांग्ला भाषी समाज में वो एक जाना-पहचाना नाम थीं. तब तक बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखा गया उनका मशहूर उपन्यास ‘हज़ार चौरासी की मां’ प्रकाशित हो चुका था. ऐसे में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के गोरख पांडे और उर्मिलेश जैसे कुछ छात्र और समकालिन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने महाश्वेता देवी से इंटरव्यू लिया.
आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि यह हिंदी में महाश्वेता देवी का पहला इंटरव्यू था.उन्होंने उस इंटरव्यू में कहा था कि हम सभी लेखकों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी को नज़दीक से देखे-सुने बिना लिखने का कोई अधिकार नहीं है. यह ज़रूरी है कि हम जनता तक जाए और उनकी वास्तविक ज़िंदगी से जुड़ी कहानियों को समझें. और हमारे पास जो कुछ है वो उन्हें दें.”
वर्मा बताते हैं कि इस संदर्भ में उन्होंने शोषण की जटिल प्रक्रिया है समाज के तमाम अंतर्विरोधों को समझने की बात कही थी. जब वो ये बाते बता रही थी तब ऐसा लग रहा था कि हम ब्रेख़्त को पढ़ रहे हैं.
महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित बंगाल के ढाका शहर में 1926 में हुआ था. उनके पिता मनीष घटक ख़ुद एक मशहूर उपन्यासकार थे और चाचा ऋतिक घटक आगे चलकर एक फिल्मकार के रूप विख्यात हुए.
महाश्वेता देवी 1940 के दशक में बंगाल के कम्युनिस्ट आंदोलन से प्रभावित हुईं और हमेशा दबे-कुचले शोषित समाज की न्याय की लड़ाई में शामिल रहीं.
उन्हें 1986 में पदम श्री, 1996 में ज्ञानपीठ और 2006 में पदम विभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
हिंदी के कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि महाश्वेता देवी ने तीसरी दुनिया के देशों के लेखकों के सामने एक उदाहरण पेश किया.
वो कहते हैं, “महाश्वेता देवी इस बात का बहुत बड़ा उदाहरण है कि तीसरी दुनिया के देशों के लेखकों को कैसा होना चाहिए. वो लेखक होने के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता भी थीं.”
वो आगे कहते हैं कि बाहर के देशों में भारतीय साहित्य को जिन रचनाओं की बदौलत जाना गया, उनमें महाश्वेता देवी की रचनाएं भी हैं.
मंगलेश डबराल कहते हैं कि महाश्वेता देवी पहली ऐसी लेखिका हैं जिन्होंने नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान जो लोगों ने यातनाएं सहे, उनका एक दस्तावेज़ ‘हज़ार चौरासी की मां’ तैयार की.
महाश्वेता देवी ने अपने मशहूर उपन्यास ‘हज़ार चौरासी की मां’ में एक भद्रलोक वर्ग की महिला की कहानी को तब की समाजिक उथल-पुथल से जोड़ा है.
मंगलेश डबराल बताते हैं कि महाश्वेता देवी से पहले बांग्ला साहित्य में पारिवारिक द्वंद की कहानियां होती थीं.
दो साल पहले महाश्वेता देवी के बेटे नवारुण भट्टाचार्य की कैंसर से मृत्यु हो गई थी. उनकी गिनती भी बांग्ला के मशहूर कवियों में होती है.
नवारुण के साथ ‘भाषा बंधन’ नाम की पत्रिका का संपादन करने वाले अरविंद चतुर्वेद महाश्वेता देवी के मानवीय पहलू को याद करते हैं.
अरविंद बताते हैं, “बीच-बीच में वो फोन कर के बुला लेती थीं. कहती थी क्या कर रहे हो? आ जाओ. एक बार रात में मैं अख़बार के दफ़्तर से काम कर के उनके पास चला गया. तब उन्होंने कहा था कि तुम बहुत थके हुए दिख रहे हो. इतना कह कर वो उठकर बाथरूम में गई और एक तौलिए को गीला कर उसे निचोड़ कर ले आई. और मेरे पीछे खड़ी होकर मेरे सिर पर तौलिया रखकर उस थोड़ा और गीला किया. फिर कहने लगी कि जब मैं बहुत थकी होती हूं तो ऐसे ही ख़ुद से ही अपनी थकान मिटाती हूं.”
महाश्वेता देवी के साथ ही लेखकों के एक पूरी पीढ़ी का अंत हो गया है जो लेखन को सामाजिक संघर्ष का हिस्सा मानते थे, ड्राइंग रूम में किया जाने वाला सुरक्षित रचनाकर्म नहीं.