नहीं रहे सुप्रसिद्घ तबला वादक लच्छू महाराज, असहमति को शिल्प से सोचने वाले थे कलाकार

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दालमंडी की ठसाठस भरी तंग गलियां, भीड़ भरे बाजार में दुकानदार, ग्राहकों का भारी शोरगुल, इधर-उधर भागते फेरीवाले, इन सबके बीच एक मकान की दूसरी मंजिल पर बंद कमरे में तबले पर चलता रियाज। लच्छू महाराज का यही पता था। अब भी पता वही रहेगा, लेकिन लच्छू महाराज वहां नहीं मिलेंगे। शहर बनारस में रोज सामने घाट से दालमंडी तक आठ किलोमीटर की दूरी पैदल चलकर आने का सिलसिला अब खत्म। प्रख्यात फिल्म अभिनेता गोविंदा के मामा और सितारा देवी के दामाद लच्छू महाराज बनारस ही नहीं, तबला बजाने और तबले को जानने वालों के बीच किसी पहचान के मोहताज नहीं थे।
1975 में आपातकाल लगा, तो जॉर्ज फर्नांडिस, देवव्रत मजुमदार, मार्कंडेय जैसे धाकड़ समाजवादी नेताओं को लच्छू महाराज जेल में तबला बजाकर सुनाते थे। नरेन्द्र नीरव कहते हैं, वो जेल में सिर्फ तबला नहीं बजाते थे, बल्कि आपातकाल का अपने तरीके से विरोध करते थे। उन्हें संगीत नाटक एकेडमी व अन्य पुरस्कार न मिलने का कोई मलाल नहीं था। लाल रंग का एक गमछा, एक जनेऊ और पूर्वजों की तस्वीर के बीच सुबह 10 बजे से जो रियाज शुरू होता, वो शाम को 6 बजे ही खत्म होता। दाल मंडी की गलियां जो कभी तवायफों के नृत्य, तहजीब एवं अदब की बानगी थीं, वो लच्छू महाराज के पदचाप का बेसब्री से इंतजार करतीं।
लच्छू महाराज की जिद और तबले के प्रति उनके प्रेम के कई किस्से हैं। बताते हैं कि एक बार आकाशवाणी में उन्हें तबला वादन के लिए बुलाया गया जिन केंद्र निदेशक महोदय ने उन्हें बुलाया वो पांच मिनट विलंब से आए इसका नतीजा यह हुआ कि लच्छू महाराज बिना कार्यक्रम में शामिल हुए वापस लौट गए। एक घटना विश्व विख्यात संकट मोचन संगीत समारोह की है जिसमें लच्छू महाराज को तबला वादन के लिए बुलाया गया था। तबला बजाते-बजाते फट गया, नया तबला लाने में देरी हुई तो लच्छू महाराज बीच में ही उठ कर चले गए। लच्छू महाराज का जाना संगीत में विपक्ष का जाना है। सत्तातंत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले तबला वादकों को खुलकर खरी-खोटी सुना पाते थे।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार लेखक, आलोचक और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल कहते हैं कि असहमति को शिल्प से सोचने का कलात्मक नजरिया खत्म हो गया। लच्छू महाराज ने अपने तबले में कभी किसी प्रभुत्वकारी शिल्प को स्वीकार नहीं किया। वो बताते हैं कि हालांकि लच्छू महाराज की जिद ने उनको कई अवसरों से वंचित किया। उनके अघोरपन के किस्से उनके अवधूत स्वरुप के किस्से इतने बड़े हो गए कि उनकी उपलब्धियां पीछे रह गईं, जिस बाजार में कबीर दास ने खड़ा होकर अपना घर जलाने की चुनौती दी थी उसी जगह लच्छू महाराज तबला बजाते थे। व्योमेश कहते हैं, तवायफों के परिवार से आने वाले कलाकार नामचीन, प्रकांड विद्वान होने पर भी कहीं न कहीं शर्म का अनुभव करते रहे हैं। यह दर्द उनके चेहरे पर भी दिखता था।