अभिषेक चौबे की फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ को सेंसर किए जाने से जुड़ा विवाद एक मौका है जब फिल्मों और टीवी को सेंसर करने की स्वस्थ परंपराओं की शुरुआत की जा सकती है। इस जाँच की कसौटी को बनाने में अमरीका और यूरोप में फिल्मों की सेंसरशिप पर एक नजर डालने से मदद मिल सकती है। वैसे भारत में सेंसर को लेकर दोहरी दिक्कत है।
एक फिल्म सेंसर बोर्ड तो है ही जो प्रदर्शन से पहले हर फिल्म को देख कर उसे सार्वजनिक प्रसारण के लिए उपयुक्त या अनुपयुक्त करार देता है तो दूसरी ओर ऐसी घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं जब सेंसर का प्रमाणपत्र हासिल करने वाली फिल्मों का प्रदर्शन राजनीतिक या धार्मिक संगठनों के कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर रोक देते है।
सेंसर का तरीका बदलने से इस समस्या से निजात मिल सकती है। साठ के दशक तक पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में सेंसरशिप के नियम भारत की ही तरह कड़े थे। अमरीका में साठ के दशक में सेंसर की पाबंदियाँ नरम की गईं। ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन में साठ के दशक के मध्य से पहले ये कानून उदार नहीं थे।
आज काफी उदार कानूनों के बावजूद सेंसरशिप दूसरे रास्तों से अपना हस्तक्षेप करती रहती है। अपनी कठोर सेक्युलर संस्कृति के लिए चर्चित फ्रांस जैसे देश में भी मार्टिन स्कोरसीज़ की 1988 में प्रदर्शित फिल्म ‘दि लास्ट टेम्पटेशन ऑफ क्राइस्ट’ को कई शहरों के मेयरों ने प्रदर्शित नहीं होने दिया था। इसके पीछे वहाँ की प्रभावशाली कैथॅलिक लॉबी थी।
लेकिन यह एक अपवाद है। आज अमरीकी और यूरोपीय फिल्मों के लिए सेक्स, सेक्शुएलिटी और नग्नता का चित्रण अपने-आप में कोई बेचैन कर देने वाली समस्या नही है। इन फिल्मों में मैथुन के दृश्य भी आमतौर से दिखाए जाते है। लेकिन भारतीय फिल्मों में चुम्बन दिखाने को लेकर भी काफी बहस होती रही है।
इसी तरह हिंसा का मसला है। पश्चिमी फिल्मों में भीषण हिंसा और रक्तपात का चित्रण रोजमर्रा की जिदगी को दिखाता है, पर भारतीय पर्दे पर दिखाई जाने वाली मारपीट में घूँसों की आवाज तो खूब आती है, पर उसकी तुलना में न तो हड्डी टूटती है और न ही खून निकलता है।
इसी भारतीय रवैये के कारण यूरोप के कला सिनेमा के प्रभाव में बनी कला फिल्मों ने अपनी विषय-वस्तुओं से सामान्यतया सेक्स को दूर रखा जबकि फ्रांस और जर्मनी में बनी कला फिल्मों का एक मुख्य लक्षण सेक्स और सेंशुलिटी का चित्रण भी था।
अमरीका में तो इन फिल्मों का लोकप्रिय बाजार सेक्स सिनेमा के तौर पर ही तैयार हुआ था। खास बात यह है कि सेक्स का बिना संकोच इस्तेमाल करने वाली यूरोप की कला फिल्मों में वहाँ की सरकारों का पैसा लगा था।
अब तो स्थिति यह है कि अमरीका और जर्मनी में फिल्मों को सेंसर करना संविधान के खिलाफ माना जाता है। हॉलीवुड की फिल्मों पर ‘मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एंड डिस्ट्रीयूटर्स ऑफ अमेरिका’ नामक संस्था नजर रखती है जो सरकारी न हो कर फिल्म व्यवसाय द्वारा ही 1922 में बनाई गई थी।
23 साल तक इसके अध्यक्ष रहे विलियम एच हेज़ के नाम पर इसे हेज कोड के नाम से भी जाना जाता है। हेज की मान्यता थी कि अगर हॉलीवुड संघीय सरकार के हस्तक्षेप से खुद को बचाना चाहता है तो उसे खुद को सेंसर करने की कोशिश करनी चाहिए।
शुरुआत में यह काम हेज कोड ने किया। पर तीस के दशक में अपराध जगत और गिरोहबाजो को केंद्र में रख कर बनी फिल्म की आलोचना की प्रतिक्रिया में एक फिल्म निर्माण संहिता जारी की गई। इसका पालन करना सभी फिल्म कंपनियों के लिए जरूरी था।
1968 में इसकी जगह ‘मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन ऑफ अमेरिका’ (एमपीएए) ने एक रेटिंग सिस्टम लागू किया जो आज तक सफलतापूर्वक साथ काम कर रहा है। हम कई गलत बातों के लिए पश्चिम और अमरीका की तरफ देखते है। अगर अमरीका से कुछ सीखना ही है, तो ये सीखना चाहिए कि उनका फिल्म उद्योग बिना सरकारी हस्तक्षेप के खुद को कैसे सेंसर करता है। जो हॉलीवुड में होता है, वह बॉलीवुड में भी हो सकता है।