हमारी संस्कृति देव पूजा में विश्वास करती है। शास्त्रों के अनुसार देव पूजा एक प्रकार से सद्गुणों उत्तम सामर्थ्यों और उन्नति के गुप्त तत्वों की पूजा है। वास्तव में हमारे धर्मग्रंथों में वर्णित देव शक्तियां गुप्त रूप से संसार में नाना प्रकार के परिवर्तन और उत्कर्ष उत्पन्न करती हैं। उपद्रव भी इन्हीं शक्तियों द्वारा कारित होता है। मनुष्य के जीवन में उत्पन्न दुःख, सुख, रोग, शोक, भय आदि उपद्रवों के शमन के लिए इन्हीं देव शक्तियों की पूजा करने का विधान हमारे शास्त्रों में दिया गया है।
वेदों में पूजा शब्द के अर्थ की योजना करते हुए कहा गया है – पूर्जायते अनेन इति पूजा। यह पूजा शब्द की व्युत्पत्ति है। पूः का अर्थ है भोग और फल की सिद्धि। वह जिस कर्म से संपन्न होती है उसका नाम पूजा है। सकाम भाव वाले को अभीष्ट भोग अपेक्षित होता है और निष्काम भाव वाले को अर्थ – पारमार्थिक ज्ञान।
अभीष्ट की प्राप्ति के लिए यदि भली भांति वार, नक्षत्र आदि का विचार करके अनुष्ठान हुआ हो तो वह तत्काल फलदायी होता है।
जिस देवता की पूजा करनी हो उसके लिए कुछ विशेष तिथियों का निर्धारण किया गया है। आज हम आपको विघ्न विनाशक भगवान गणेशजी की पूजा की सर्वोत्तम और शीघ्र फलदायी तिथियों के बताते हैं।
विद्येश्वर संहिता के अनुसार प्रत्येक शुक्रवार को, श्रावण और भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को, और पौष मास में शतभिषा नक्षत्र के आने पर भगवान् गणेश की विधिवत पूजा करनी चाहिए। इसके अलावा प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को की हुई महागणपति की पूजा उत्तम भोगरूपी फल देनेवाली होती है। चैत्र मास में चतुर्थी तिथि को की हुई पूजा सभी प्रकार के शोक का नाश करने वाली होती है। भाद्रपद मास की चतुर्थी तिथि को जब सूर्य सिंह राशि पर स्थित हों तब उस समय की हुई पूजा मनोवांछित फलप्रद होती है। कृत्तिकायुक्त शुक्रवार को भगवान गजानन गणेश की पूजा करने तथा अन्नदान करने से मनुष्य के भोग्य पदार्थों में वृद्धि होती है।