जारवा आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ना उनके वजूद के लिए खतरा है और उन्हें उनके हाल पर छोड़ना भी

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सुदूर अंडमान में हुई एक हत्या ने इन दिनों पुलिस-प्रशासन के सामने एक दुविधा खड़ी कर दी है. पांच महीने के इस बच्चे की हत्या नवंबर 2015 में हुई थी. लेकिन हत्या के आरोपी को गिरफ्तार करने को लेकर पुलिस अभी तक असमंजस में है.

इसकी वजह भी है. यह हत्या 300 वर्ग मील के दायरे में सिमट चुकी जारवा आदिवासी जनजाति के इलाके में हुई है. 50 हजार साल पहले अफ्रीका से भारत आई इस जनजाति में अब करीब 400 लोग ही बचे हैं और वे अभी भी लगभग उसी तरीके से रहते हैं जैसे हजारों साल पहले रहते थे. जारवाओं की आदिम संस्कृति को संरक्षण देने के उद्देश्य से उन्हें विशेष दर्जा मिला हुआ है. पुलिस को उनके मामलों में दखल देने की इजाजत नहीं है.

खबरों के मुताबिक पांच महीने के इस बच्चे की हत्या इसलिए हुई कि वह मिश्रित नस्ल का था. फिलहाल अधिकारी बहुत फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं. अभी तक मामले में दो बाहरी लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इनमें महिला से बलात्कार का आरोपित और बच्चे का संभावित पिता भी शामिल है. दूसरा आरोपित वह है जिसने उस आदिवासी को शराब पिलाई जिस पर हत्या का शक है.

जारवा समुदाय समय-समय पर चर्चा में आता रहता है. कुछ साल पहले ब्रिटेन के अखबार द ऑब्जर्वर द्वारा जारी एक वीडियो के बाद भी यह समुदाय सुर्खियों का विषय बना था. वीडियो में कुछ पर्यटकों के सामने जारवा महिलाएं नाचती हुई दिखाई दे रही थीं. पर्यटकों के साथ एक पुलिसवाला भी था जो कुछ खाने के सामान के बदले इन महिलाओं को नाचने के लिए कह रहा था. मानवाधिकार संगठनों ने जारवा आदिवासियों के साथ हो रहे इस बर्ताव को रोकने के लिए भारत सरकार से तुरंत कार्रवाई करने की मांग की थी. इस घटना के बाद पिछले चार सालों में भारत सरकार और केंद्र शासित प्रदेश अंडमान के प्रशासन कुछ सख्ती जरूरी दिखाई है लेकिन आज भी अंडमान में अघोषित रूप से जारवा आदिवासियों की ह्यूमन सफारी जारी है.
बीते साल अंडमान ट्रंक रोड (एटीआर) पर भी विवाद हुआ था जो इन आदिवासियों के निवास क्षेत्र से गुजरती है. यह रोड उत्तरी अंडमान को दक्षिणी अंडमान से जोड़ती है. जारवा दक्षिण अंडमान में रहते हैं. इनकी मुख्य बसाहट के चारों तरफ पांच किमी का क्षेत्र सरकार द्वारा संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है. यह इलाका केंद्र शासित प्रदेश की राजधानी पोर्ट ब्लेयर और बरतांग के बीच में है. द्वीप समूह आने वाले पर्यटक एटीआर से ही सफर तय करते हैं. इस दौरान उनका सामना जारवा आदिवासियों से होता रहता है.

एटीआर से गुजरने वाले पर्यटकों के लिए आदिवासियों की तस्वीरें उतारने और उन्हें कुछ भी देने की मनाही है. लेकिन यह प्रतिबंध कभी कड़ाई से लागू नहीं किया गया. एक अनुमान के मुताबिक हर साल यहां तकरीबन दो लाख पर्यटक आते हैं और इनमें से ज्यादातर को जारवा आदिवासियों के ‘अजूबा’ होने की जानकारी होती है. पिछले कई सालों से ऐसी खबरें आती रही हैं कि स्थानीय टूर एजेंट और गाइड पर्यटकों से पैसा लेकर उन्हें जारवा आदिवासी दिखाने ले जाते हैं. पर्यटकों द्वारा इन्हें खानेपीने का सामान, जिसमें तंबाकू से लेकर शराब तक शामिल है, देने के मामले भी उजागर हुए हैं. मानवशास्त्री कहते हैं कि तकरीबन 50 हजार साल से मुख्य समाज से कटकर जंगल के बीच रह रहे ये आदिवासी अब शराब और तंबाकू के लती बन रहे हैं.
इस आदिवासी समुदाय का मुख्य समाज से कभी संबंध नहीं रहा इसलिए इनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता आधुनिक बीमारियों के सामने शून्य है.

इन्हीं चिंताओं के मद्देनजर जनवरी, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एटीएआर के संरक्षित क्षेत्र वाले हिस्से को बंद करने का आदेश दे दिया था. लेकिन अंडमान में इसका विरोध होने लगा. दरअसल यह 287 किमी लंबी सड़क इस द्वीपसमूह की जीवनरेखा है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अंडमान प्रशासन ने अदालत को आश्वासन दिया कि वह जारवा आदिवासियों के संरक्षण के लिए नए नियम बनाएगा और उन्हें सख्ती से लागू करेगा. इसके बाद एटीआर पर लगी आवागमन की रोक खत्म हो गई. साथ में जारवा आदिवासियों की ह्यूमन सफारी फिर से चलने लगी, लेकिन सावधानी से.
अंडमान-निकोबार में एक समय मूल जनजातियों के पांच समूह पाए जाते थे. आज इनमें से सिर्फ चार बचे हैं. इनमें भी जारवा आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है. लंबे अरसे तक जारवा आदिवासियों की छवि आक्रामक बनी रही है. कहा जाता है कि 1950 के दशक में जब अंडमान ट्रंक रोड बन रही थी तब इन्होंने सड़क निर्माण में लगे मजदूरों पर हमले कर कुछ लोगों की हत्या कर दी थी. यह समुदाय 1997 में पहली बार मुख्य धारा के समाज के संपर्क में आया. तब एक जारवा लड़का सड़क दुर्घटना में घायल हो गया था. इसका इलाज पोर्टब्लेयर के अस्पताल में हुआ. जहां उसने थोड़ी बहुत हिंदी सीख ली थी. इसके जरिए जारवा आदिवासियों के बारे में कई जानकारियां मिलीं है. यह लड़का कुछ समय के बाद अपने मूल समुदाय में लौट गया. इस घटना के बाद जारवा और मुख्य समाज के बीच कुछ हद तक दोस्ताना संबंध बने हैं.

केंद्र सरकार ने जारवा जनजाति को 1956 के एक कानून के हिसाब से संरक्षित घोषित किया है. वह समय-समय पर अंडमान प्रशासन के जरिए इनके लिए नीतियां भी बनाती रही हैं. लेकिन इस सब के बीच यह बहस भी लगातार चलती रही है कि इस जनजाति को कैसे बचाया जाए. दुनियाभर में जनजातियों को बचाने के दो ही तरीके अपनाए जाते हैं. इनमें पहला है कि उन्हें जागरूक करके धीरे-धीरे मुख्यधारा में शामिल किया जाए. दूसरा तरीका है कि उनके लिए संरक्षित क्षेत्र बनाकर उनके समाज में न्यूनतम हस्तक्षेप किया जाए. जारवा आदिवासियों को बचाने का पूरा अभियान भी इस समय इन्हीं दो बिंदुओं के बीच उलझा हुआ है. इन दोनों विकल्पों के पक्ष और विपक्ष में कई तरह के तर्क दिए जाते हैं.
जो लोग जारवा आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सरकारी कोशिशों को बढ़ाने की बात करते हैं उनका मानना है कि देश की कई जनजातियों का अस्तित्व इसी तरह से बचा है. अंडमान-निकोबार से भाजपा के सांसद विष्णु पांडा रे इसके सबसे बड़े समर्थक हैं. उनका कहना है कि इन लोगों को शिक्षित करके मुख्यधारा के समाज से जोड़ना चाहिए तभी ये बच सकते हैं. इस वर्ग का मानना है कि जारवा इलाके को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर देने से आप उन तक स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंचा सकते. ऐसे में उनकी आबादी किसी भी समय संक्रामक बीमारियों की चपेट में आकर पूरी तरह खत्म हो सकती है.

मानवाधिकार संगठनों से लेकर सरकार तक में एक बड़ा तबका है जो जारवा आदिवासियों के सामाजिक तानेबाने में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के सख्त खिलाफ है. ये लोग बाहरी लोगों और पर्यटकों से इनका संपर्क खतरनाक मानते हैं. सोसाइटी फॉर अंडमान-निकोबार इकोलॉजी (सेन) संगठन से जुड़े समीर आचार्य एक रिपोर्ट में कहते हैं कि पर्यटकों के कारण यह जनजाति नष्ट होने की कगार पर पहुंच रही है क्योंकि पर्यटक इन लोगों को खाने का सामान देते हैं जिससे आदिवासी बीमार पड़ रहे हैं. सर्वाइवल इंटरनेशनल का कहना है कि 50 हजार साल से यह जनजाति खुद को अपने में सीमित रखे हुए हैं इसलिए इनमें आधुनिक लोगों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया व वायरस से लड़ने की क्षमता नहीं है. यदि जारवा आधुनिक लोगों के संपर्क में आते हैं तो यह उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है.

मानवाधिकार संगठन इसके लिए ग्रेट अंडमानी जनजाति का उदाहरण देते हैं जो बीते सालों में मुख्यधारा के समाज से काफी घुलमिल गई थी. लेकिन बीमारियों और शराब की लत में पड़कर यह जनजाति अब लगभग खत्म हो चुकी है. माना जाता है कि पूरे द्वीप समूह पर इस समय ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की तादाद 50 से ज्यादा नहीं है.

बहस के इन दोनों बिंदुओं के बीच केंद्र सरकार ने 2004 में जारवाओं की सुरक्षा के लिए एक विशेष नीति बनाई थी. इसमें तय किया गया है जब तक इस जनजाति को बचाने से जुड़े अध्ययन पूरे नहीं हो जाते सरकार अपनी तरफ से इन लोगों के जीवन में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगी. केंद्र सरकार फिलहाल इसी नीति पर कायम है. लेकिन दूसरी तरफ पर्यटन के नाम पर अभी-भी जारवा आदिवासियों को बाहरी लोगों के मेलजोल का मौका-मिल रहा है. इस समय जनजाति को बचाने की किसी भी नीति पर पूरी तरह अमल नहीं हो पा रहा है.

हो सकता है एक बच्चे की हत्या के इस मामले के बाद जारवा क्षेत्र में पर्यटन पर लगी पाबंदियां और कड़ी हो जाएं. यह कदम जारवा आदिवासियों की मानवीय गरिमा तो बचा लेगा लेकिन उनके अस्तित्व का सवाल अभी-भी पहले की तरह अनुत्तरित रहेगा.