मुख्तार अंसारी के नाम पर खेला गया नाटक सपा के लिए सुखांत हो सकता था अगर…

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कहा जाता है कि प्रेम और जंग में सब कुछ जायज होता है. उत्तर प्रदेश में यह बात राजनीति पर भी लागू होती है. कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी के साथ हुए विलय के बाद से चल रहे घटनाक्रम का जिस तरह से नाटकीय पटाक्षेप हुआ उससे एक बार फिर से यह बात साबित हो गई कि सत्ता की शतरंजी बिसात पर राजा को बचाना ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, फिर चाहे उसके लिए प्यादा किसी को भी क्यों न बनाना पड़े. मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के सपा के साथ हुए विलय और फिर इस विलय के पटाक्षेप से अखिलेश को पुनर्स्थापित करने के इस नाटक में समाजवादी पार्टी ,शिवपाल सिंह यादव और स्वयं मुलायम सिंह यादव को प्यादा बना पड़ा. लेकिन इस नाटक का अंत सपा के लिए सुखांत होगा, इसमें संदेह है.
जिस दिन यह विलय हुआ उस दिन विलय के कुछ क्षण पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक जिलास्तरीय कार्यक्रम में पत्रकारों के सवाल पर कहा था कि अगर कार्यकर्ता ठीक से काम करते रहे तो समाजवादी पार्टी को किसी के विलय की जरूरत नहीं है. यह सवाल इसलिए पूछा गया था कि कौमी एकता दल के सपा के साथ विलय की तारीख के बारे में कई दिन से मीडिया में खबरें आ रही थीं. मगर अखिलेश ने उस वक़्त अपनी जुबान से न तो मुख्तार अंसारी का नाम लिया और न ही इस बहुप्रचारित विलय की खबरों पर कोई विराम लगाया. हाल में हुए राज़्य सभा और विधान परिषद चुनावों में भी मुख्तार और उनके कौमी एकता दल के वोट अपने पाले में पड़ते देख कर भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. राजधानी लखनऊ के सभी अखबारों में इस आशय के समाचार छप रहे थे. टीवी चैनलों और न्यूज़ पोर्टलों में भी विलय की ख़बरें थीं. मगर अखिलेश ने इन अटकलों को खारिज नहीं किया. लखनऊ में इस बारे में पत्रकारों के सवालों को भी वे टालते रहे. मगर जब लखनऊ में मुख्तार के दो बड़े भाइयों की मौजूदगी में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ मंत्री शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय की घोषणा कर दी तो अखिलेश यादव को तुरंत गुस्सा आ गया.
नाटक के पहले प्यादे बने मुलायम के पुराने साथी और मंत्री बलराम यादव. अखिलेश ने उन्हें मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया. बलराम यादव का अपराध यह बताया गया कि उनकी ही मध्यस्थता के कारण कौमी एकता दल का सपा में विलय हुआ था. इसके बाद बलराम यादव को मीडिया के सामने आंसू बहाते देखा गया. ये बलराम यादव वही हैं जिनके मुलायम सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए उत्तर प्रदेश का पहला बड़ा सरकार संरक्षित घोटाला यानि आयुर्वेद घोटाला हुआ था. बहरहाल बलराम यादव को अगर गुनाहगार माना गया था तो उनसे बड़ा गुनाह मुलायम सिंह यादव का था जिन्होंने विलय को हरी झंडी दिखाई थी और शिवपाल यादव का भी जिन्होंने विलय की सार्वजनिक घोषणा की थी. इसके अगले दिन अखिलेश का अलग ही रंग था. उन्होंने पत्रकारों से बहुत संयत ढंग से कहा कि मुख्तार अंसारी को लेखर कोई विवाद नहीं है और इस मामले नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव का फैसला स्वीकार्य है.
इस बीच जब यह बात चर्चा में आ गयी कि विलय होते ही मुख्तार अंसारी को उनकी सुविधा को देखते हुए आगरा जेल से लखनऊ बुला लिया गया है तो नाटक में एक और पात्र जोड़ दिया गया. ये थे कारागार मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया.उन्होंने आननफानन में एक प्रेस कांफ्रेंस बुला कर मामले को संभालने की कोशिश की. हालांकि यह दांव उलटा पड़ गया क्योंकि पत्रकारों के सवालों से उलझे रामूवालिया के मुंह से मुख्तार की जेल बदले जाने के मामले में यह निकल गया कि प्रदेश में चींटी भी चलती है तो सीएम को जानकारी रहती है. हालांकि बाद में वे यह सफाई देते रहे कि मुख्यमंत्री को मुख्तार मामले की जानकारी नहीं थी. इस प्रकरण में एक सफाई शिवपाल यादव की ओर से भी आई कि यह फैसला पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का था लेकिन, अब संसदीय बोर्ड की बैठक में इस पर अंतिम फैसला होगा.
मगर पटकथा में एक दृश्य और बाकी था. बैठक से पूर्व ही एक नेशनल न्यूज चैनल के लाइव प्रोग्राम में मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी कि उन्हें मुख्तार अंसारी जैसे लोगों का समाजवादी पार्टी में आना मंजूर नहीं. हालांकि यह माना जा रहा था कि ऐसी घोषणा संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद होगी.
दरअसल इस पूरे नाटक का मक़सद अखिलेश की 2012 वाली छवि को पुनर्स्थापित करना था. तब उन्होंने इसी तरह पहले घोषणा हो जाने के बाद दागी डीपी यादव और उनकी राष्ट्रीय परिवर्तन पार्टी का समाजवादी पार्टी में शामिल होना रद्द करवा दिया था. चुनावी माहौल में फिर से अखिलेश की बेदाग छवि को पेश करने के मक़सद से मुख्तार प्रकरण में अखिलेश की घोषणा के लिए सबसे तेज चैनल के सजीव प्रसारण को मंच चुना गया और बाद में जब तक संसदीय बोर्ड ने कौमी एकता दल का सपा में विलय रद्द होने की घोषणा की, उसके पहले ही अखिलेश की साफ़ सुथरी राजनीति के काफी कसीदे पढ़े जा चुके थे. साथ ही 2012 की साइकिल यात्रा की तरह ही अखिलेश की विकास रथ यात्रा निकाले जाने की घोषणा भी हो चुकी थी.
अब चाहे इसे चाचा पर भतीजे के भारी पड़ने की बात कह कर प्रचारित किया जाए या फिर मुलायम का धोबी पछाड़ दांव कह कर, मगर इस बार और 2012 की स्थितियों में बहुत अंतर है. तब अखिलेश यादव सत्ता परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे थे और मायावती के भ्रष्ट शासन से त्रस्त, बदलाव चाह रही जनता को एक विकल्प के रूप में दिख रहे थे. लेकिन अब अखिलेश यादव खुद सत्ता में हैं. अब वे सिर्फ मुख्तार को आपराधिक राजनीति का प्रतीक बता कर खुद बेदाग शासन के प्रतीक नहीं बन सकते. जनता की समस्या सिर्फ राजनीति के बाहुबली ही नहीं हैं. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं, नेताओं और मंत्रियों की करतूतों के लिए भी वह अखिलेश से ही जवाब चाहती है. पुलिस के यादवीकरण, पुलिस प्रमुखों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार, पुलिस नियुक्तियों में धांधलियों, लगातार बढ़ रही पुलिसकर्मियों की हत्याओं और खुद पुलिस के अपराध तंत्र में शामिल होने की बढ़ती घटनाओं के लिए भी जवाब अखिलेश यादव को ही देना है. राजधानी के एक थाने में पुलिस द्वारा दबंग अपराधियों को बचाने के लिए बलात्कार पीड़िता के परिवार को ही जेल भेज देने जैसे अनेक मामलों के लिए भी जनता अखिलेश से ही जवाब मांगेगी.
इसलिए मुख्तार अंसारी के नाम पर हुए नाटक का समाजवादी पार्टी के पक्ष में सुखात अंत अब महज एक कल्पना ही साबित होने वाला है. इस प्रकरण के राजनीतिक प्रभावों का आकलन तो बाद में होगा मगर अभी तो अखिलेश की छवि सुधारने का यह नाटक फ्लॉप ही दिखता है.