फिर वही सैलाब, फिर वही सवाल

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जिस मॉनसून को भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अहम माना जाता है उसके प्रचंड रूप ने एक बार फिर कुछ राज्यों को तहस-नहस कर दिया है. असम से लेकर कर्नाटक तक थोड़े से वक्त में हुई मूसलाधार बारिश के चलते आई बाढ़ न सिर्फ कई जिंदगियां लील चुकी है बल्कि उसने खेती और मेहनत से खड़ी की गई लोगों की संपत्ति का नाश भी कर दिया है. पानी कम होगा तो केंद्रीय टीमों द्वारा नुकसान के आकलन से जुड़े आंकड़े और तटबंधों की मरम्मत करने जैसे कामों का वही चिर-परिचित चक्र शुरू हो जाएगा.
असम, जहां अब तक 31 मौतें हो चुकी हैं, में भारी गाद लाने वाली ब्रह्मपुत्र के तटबंधों को मजबूत करने के लिए कई परियोजनाएं हैं. बाढ़ नियंत्रण विभाग और आपदा राहत बल, दोनों के पास ही भारी-भरकम बजट भी है. बाढ़ की तैयारी, राहत और नुकसान को कैसे कम से कम रखा जाए, इस पर सैकड़ों करोड़ रु खर्च होते हैं. लेकिन अब तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं बनाई जा सकी है जिससे भारी बारिश के असर को कम किया जा सके. उफनाई नदी अक्सर एक ही रात में कमजोर तटबंधों को तोड़ देती है.
अब एक बार फिर पूर्वोत्तर भारत और दूसरी जगहों पर आई बाढ़ हमें एक नई अंतर्दृष्टि भी दे रही है. समय आ गया है कि केंद्र इस संकट से निटपने में एक समन्वित नजरिये का परिचय दे. इसकी शुरुआत उसे उन भविष्यवाणियों की समीक्षा से करनी होगी जो 180 विशेष स्टेशनों से जारी की जाती हैं. उसे इसकी भी समीक्षा करनी होगी कि ये अलर्ट जिन 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को मिलते हैं उनकी इन पर क्या प्रतिक्रिया रहती है.
शहरी भारत भी बाढ़ से कम पीड़ित नहीं है. लेकिन शहरों के प्रशासन ने विनाश से कुछ ज्यादा सबक नहीं सीखे हैं. बीते हफ्ते गुड़गांव, बेंगलुरू और दिल्ली में लगे जाम और उससे उपजे असंतोष के दृश्य दुनिया भर में प्रसारित हुए. यह सब चेन्नई में हुई बर्बादी के कुछ ही महीने बाद हुआ. सवाल यह है कि हमारे शहर जिस विनाशकारी तरीके से बढ़ रहे हैं क्या उसका कोई समाधान हो सकता है? बेंगलुरु दलदली इलाकों यानी वेटलैंड्स के प्रति सरकारी उदासीनता का उदाहरण है. यहां ज्यादातर वेटलैंड्स या तो प्रदूषित हो चुके हैं या फिर उनके एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण हो चुका है. अगर हमें घनी आबादी वाले अपने शहरों को रहने योग्य बनाना है तो हमें इन जलस्रोतों को गादमुक्त कर उन्हें उनके पुराने रूप में बहाल करने का काम युद्धस्तर पर करना होगा. जिन वेटलैंड्स पर निर्माण हो चुका है उनकी भरपाई करने के लिए नए कृत्रिम वेटलैंड्स विकसित किए जा सकते हैं.
बाढ़ की विभीषिका को देखकर पर्यावरण मंत्रालय को अंदाजा हो जाना चाहिए कि पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन के बिना बड़ी रियल एस्टेट परियोजनाओं को मंजूरी देना एक प्रतिगामी कदम है. झीलों पर अतिक्रमण करने के लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने भले ही कुछ रियल एस्टेट कंपनियों पर जुर्माना ठोका हो लेकिन शहरी नियोजन संस्थाएं भी बराबर की जिम्मेदार हैं और नियमों के उल्लंघन को मौन स्वीकृति देने के लिए उन्हें भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. ताजा बाढ़ से जो लोग प्रभावित हुए हैं उन्हें राहत पहुंचाने का काम राजनीति को परे रखकर होना चाहिए ताकि खासकर जिन लोगों का भारी नुकसान हुआ है उनकी जरूरतें सही मायने में पूरी हो सकें.