कुछ ऐसे लोग भी संसार में हुए हैं, जिनका जन्मदिन चार वर्ष में केवल एक बार ही मनाया जाता रहा है, परंतु पंडित नंदकिशोर नौटियाल जी एक ऐसे व्यक्तित्व थे, जिनका जन्मदिन कम से कम मुझ जैसे कुछ लोग तो हर वर्ष दो बार मनाया करते थे। 15 जून को स्कूल के प्रमाण पत्र में लिखी जन्मतिथि के अनुसार और 21 सितम्बर को उनकी वास्तविक जन्मतिथि के अनुसार। 2019 की 21 सितम्बर ऐसी तिथि आई है, जब पंडित नंदकिशोर नौटियाल जी का जन्मदिवस उनकी शारीरिक अनुपस्थिति में प्रणाम करते हुए मनाना पड़ा।
यह पहला अवसर था जब 21 सितम्बर को सुबह सवेरे फ़ोन पर उनको जन्मदिन की बधाई नहीं दे पाया। तब से उनको उनके दूसरे जन्मदिन पर याद करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करा हूं। 30 अगस्त 2019 को देहरादून में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया था। 89 वर्ष की आयु में भी युवाओं जैसा उत्साह रखते थे नौटियाल साहब। पहाडी व्यक्तित्व में बहुत जोश भरा रहता थ। हमेशा मुस्कुराते हुए मिलते थे।
आंखों में स्नेह की चमक दिखाई देती थी। मैं उन्हें, और वो मुझे नाम से तो जानते थे, परंतु हमारी पहली भेंट मुम्बई में मुख्मंत्री निवास ”वर्षा” में तब हुई थी, जब वे मुख्यमंत्री से मिलकर बाहर निकले और मुझे भीतर बुलाया गया। एक लम्बे साक्षात्कार के लिये। वे मुख्यमंत्री कक्ष से बाहर आकर मेरी तरफ़ देख कर बोले, “अच्छा, तो तुम किशन शर्मा हो।
तुम्हारी लोकप्रियता से तो मुझे लगा था कि मेरी जैसी उम्र के व्यक्ति होगे, परंतु तुम तो मेरे बेटे की उम्र के हो। मिलो बाद में मुझसे”। और मेरे सिर पर हाथ रखकर उन्होंने आशीर्वाद दिया। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि बाद में मुझे उनके साथ ही महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी में सेवा करने का अवसर मिल जायेगा। सरकार ने मुझे अकादमी के सदस्य के रूप में नियुक्त कर दिया था।
थोडे ही समय में वे मेरे कार्य, विचारों, और अनुशासनात्मक कार्य पद्धति से बहुत प्रभावित हो गए और मुझे अपने निकटतम व्यक्तियों की सूची में उन्होंने शामिल कर लिया। फ़िर अक्सर ही चर्चगेट स्टेशन के पास “टी सेंटर” में, या खार के “क्लब” में चाय-नाश्ते पर नौटियाल साहब, विश्वनाथ सचदेव जी, डॉ. कन्हैया लाल नंदन जी, राजू भाई पटेल जी जैसे विख्यात व्यक्तित्वों से भेंट होने लगी।
अकादमी के अगले सत्र में मुझे पुरस्कार समिति का प्रमुख बना दिया गया और अकादमी का कार्यालयीन सचिव भी बना दिया गया। अकादमी के कार्यालय में उस दौरान भीड लगी रहती थी। स्वयं मुख्यमंत्री जी भी आ जाया करते थे। माननीय विलास राव देशमुख साहब, माननीय सुशील कुमार शिंदे साहब और माननीय अशोक चव्हाण साहब मुख्यमंत्री होते हुए, अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। मंत्रालय से विभाग के प्रधान सचिव भी समय-समय पर आते रहते थे। उप सचिव तो अकादमी के कार्यालय में ही बैठा करती थीं। हर समय चहल-पहल बनी रहती थी।
साढे तीन-चार बजे के आसपास नौटियाल साहब मुझसे कहते थे, “अरे भाई, कुछ खिलाओ-पिलाओ”; और फ़िर सभी के लिये कुछ खाद्य पदार्थ और चाय पास के ही उपहार गृह से मंगवा लिये जाते थे। यह नौटियाल जी का ही असर था कि किसी भी मुख्यमंत्री महोदय ने कभी अकादमी के किसी प्रस्ताव को अस्वीकार नहीं किया और केवल कुछ हज़ार रुपयों से बढकर पुरस्कारों की राशि लाखों रुपयों तक हो गई।
नौटियाल जी छोटे पैमाने का कोई कार्य नहीं करते थे। इसलिये अकादमी के बडे-बडे सम्मेलन महाराष्ट्र के अनेक नगरों में आयोजित करवा दिये। विश्व भाषा सम्मेलन का प्रस्ताव उस समय के सदस्य सचिव डॉ. केशव फ़ालके जी ने रखा था, और नौटियाल जी ने उसे भव्य स्तर पर पुणे में आयोजित करवा दिया।
विश्व हिंदी सम्मेलन के लिये अकादमी की ओर से नौटियाल जी के नेतृत्व में पांच सदस्यों का दल हर सम्मेलन में विश्व के उन उन राष्ट्रों में भेजा गया, जहां जहां सम्मेलन आयोजित हुए। मुझे हर बार कहा गया, परंतु मैं कभी ऐसे सम्मेलनों में नहीं गया। मेरा निवेदन रहता था कि मैं तो अपने मंच कार्यक्रमों के सिलसिले में विश्व भर में घूमता ही रहता हूं, इसलिये मेरे स्थान पर ऐसे हिंदी सेवियों-विद्वानों को भेजा जाये जो कभी विदेश नहीं गये, या बहुत अधिक बार विदेश नहीं गये। मैंने नौटियाल जी के मार्गदर्शन में पुरस्कार वितरण समारोह का स्वरूप ही बदल डाला ।
विशाल सभागृह में आयोजन, शाम पांच बजे स्वादिष्ट नाश्ता और गर्म चाय, शाम ठीक छः बजे से रात नौ बजे तक पुरस्कार वितरण, और साढे नौ बजे स्वादिष्ट भोजन। पूरा सभागार लोगों से भरा रहता था। पुरस्कृत विद्वानों को वातानुकूलित स्वतंत्र कक्षों में सुविधापूर्वक ठहराना, आने-जाने का वातानुकूलित द्वितीय श्रेणी का रेल किराया, महिला पुरस्कार विजेताओं को दो व्यक्तियों का किराया, अखिल भारतीय पुरस्कार विजेताओं को दो व्यक्तियों का हवाई यात्रा का किराया, सभी को टैक्सी आदि का तथा रास्ते का खर्च, पुरस्कार स्थल पर ही नकद प्रदान कर दिया जाता था। पुरस्कारों की राशि भी लाखों रुपये कर दी गई। देश भर से विद्वानों को इन पुरस्कारों के लिये चुना जाता था।
अकादमी ने कभी-कभी कुछ करोड रुपये भी सम्मेलनों पर खर्च कर दिये। नौटियाल जी के प्रभाव के कारण कभी भी किसी ने भी कोई आनाकानी नहीं की, विरोध नहीं किया, और अस्वीकृत भी नहीं किया। मैं, डॉ. केशव फ़ालके जी, अनुराग त्रिपाठी जी, तथा अन्य सभी मित्रवर्ग एकजुट होकर सेवा करते थे। जब नौटियाल जी ने “नूतन सवेरा” का प्रकाशन शुरू किया, तब मुझे हर अंक में एक लेख लिखने के लिये प्रोत्साहित किया। मैं नूतन सवेरा के लिये लगातार लिख रहा। मुझे नौटियाल जी ने पिता तुल्य स्नेह प्रदान किया। परिवार के हर समारोह में मुझे विशिष्ट कार्य सौंप दिये जाते थे। यहां तक कि जब राजीव नौटियाल को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ, तो नौटियाल जी के साथ मैं कहीं यात्रा कर रहा था ।
नौटियाल जी ने मुझसे ही पूछा कि उसका नाम क्या रखा जाये। मैंने “प्रवेश” नाम सुझाया और उन्होंने तुरंत वही नाम दे दिया अपने पौत्र को। बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष चुने जाने पर नौटियाल जी ने मुझे वहां का सांस्कृतिक सचिव बना दिया और मैं उनके साथ अनेक बार चार धाम की महत्वपूर्ण यात्राएं कर आया। बडे-बडे पत्रकारों और साहित्यकारों के अलावा बडे-बडे नेताओं, अधिकारियों और उद्योगपतियों से भी अपने साथ मुझे मिलने का अवसर प्रदान करते रहे नौटियाल जी। द्वारका और ज्योतिष्मठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती महाराज से मेरी बहुत अधिक निकटता नौटियाल जी के ही कारण हो सकी।
नौटियाल जी के छोटे पुत्र भरत के विवाह समारोह में भी मुझे विशेष महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में शामिल किया गया। नौटियाल जी को मैंने कभी भी नाराज़ होते या अशोभनीय भाषा का प्रयोग करते हुए नहीं देखा। वे स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कह देते थे और फ़िर मुस्कुरा देते थे। मैं जब भी किसी बात पर किसी व्यक्ति से क्रोधित हो जाता था तो वे मुझे समझाया करते थे और शांत कर दिया करते थे। बुद्धिनाथ मिश्र जी, प्रोफ़ेसर डी. तंकप्पन नायर जी, सुशीला गुप्ता जी, डॉ. बाल शौरी रैड्डी जी, डॉ. राजम पिल्लै, डॉ. महावीर अधिकारी जी जैसे व्यक्तित्वों से मेरी विशेष भेंट नौटियाल जी ने ही करवाई थी ।
डॉ. धर्मवीर भारती जी, पुष्पा भारती जी, मनोहर श्याम जोशी जी, खुशवंत सिंह जी, डॉ. कर्णसिंह जी और डॉ. हरिकृष्ण देवसरे जी आदि से मेरी पहचान पहले से ही थी, क्योंकि मेरे लेख इनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। मुझे एक बात का दुख हमेशा रहेगा। नौटियाल साहब ने अपने जीवन में अनेक व्यक्तित्वों को अनेक पुरस्कार प्रदान किये और करवाए, परंतु महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी सहित किसी भी संस्था या विभिन्न पुरस्कार प्रदान करने वाली संस्थाओं और उनसे जुडे व्यक्तियों ने कभी नौटियाल साहब को सम्मानित करने के बारे में सोचा भी नहीं। अब इस बारे में सोचना भी ठीक नहीं लगता। नौटियाल साहब भले ही शारीरिक रूप से मुझसे बिछुड गये हैं, परंतु मेरे मन-मस्तिष्क में वे सदा विराजमान रहेंगे, क्योंकि ऐसे व्यक्तित्व कभी मरते नहीं, बल्कि सदा अमर रहते हैं।
- किशन शर्मा