रियो ओलंपिक में पदक हासिल करने की दौड़ में हमारे खिलाड़ी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों से लोहा ले रहे हैं. लेकिन आयोजन अपने आधे में पहुंच गया है और अब तक भारत पदकहीन है जिसने देश भर में खेल प्रशंसकों को निराश किया है. 2012 के लंदन ओलंपिक में जब भारत ने रिकॉर्ड छह पदक जीते थे तो कई मानने लगे थे कि आखिरकार खेल की दुनिया के इस महाकुंभ में भारत एक ताकत के रूप में खड़ा होने लगा है. बताया जा रहा है कि इस समय भारत ने रियो में अपना सबसे बड़ा दल भेजा है. 120 एथलीटों की संख्या 2012 के आंकड़े से 37 ज्यादा है. लेकिन अब जो स्थिति है उससे साफ है कि 2012 की वे उम्मीदें औंधे मुंह गिर चुकी हैं.
यह असफलता उस उदासीन व्यवस्था की देन है जो खेलों को बढ़ावा देने के मामले में जमीन पर ज्यादा खास काम नहीं करती. ऊपर से जख्मों पर नमक डालने वाली बात यह है कि हाल ही में खेल मंत्री बने विजय गोयल और उनके साथ मौजूद दल ने वहां पर असभ्य व्यवहार किया है इसके लिए उन्हें आयोजक समिति से चेतावनी भी मिली है. हमारी व्यवस्था में सड़ांध किस कदर गहरे घुस चुकी है इसका पता इन खबरों से चलता है कि दुति चांद जैसे एथलीटों को तो इकॉनॉमी क्लास में 36 घंटे की यात्रा करवाई गई और खेल प्रशासक खुद बिजनेस क्लास में बैठकर गए. ऐसे हालात में जिमनास्ट दीपा करमाकर की अकूत प्रतिभा हैरान करती है जो जरा से अंतर से कांस्य से चूक गईं. उनके फिजियोथेरेपिस्ट को उनके साथ जाने की इजाजत नहीं दी गई थी. खेल मंत्रालय तभी हरकत में आया जब वे फाइनल में पहुंच गईं और तब फिजियोथेरेपिस्ट को तत्काल रियो रवाना किया गया.
अगर बदलाव लाना है तो हमें यह कड़वा सच स्वीकार करना होगा. भारत की खेल व्यवस्था अभी सिर्फ एक विशाल नेटवर्क है जिसमें रेवड़ियां बांटने के अलावा कोई काम नहीं होता. भारत ने अभी तक ओलंपिक में कुल 26 पदक हासिल किए हैं जिननें हॉकी में जीते गए नौ स्वर्ण पदक शामिल हैं. आबादी के हिसाब से इस आंकड़े को देखा जाए हम लगभग सबसे निचले पायदान पर ठहरेंगे. समय की मांग यह है कि खेल प्रशासन के इस ढांचे में आमूलचूल बदलाव के लिए एक व्यापक नीति बनाई जाए.