ग्लेशियरों को समाप्त करने की इजाजत नहीं दी जा सकती

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पर्यावरण से संबंधित मसलों पर सख्त रुख अपनाते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि ग्लेशियरों को समाप्त करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अदालत ने केंद्र सरकार से कहा कि वह उत्तराखंड के सभी हिल स्टेशनों तथा ग्लेशियरों को तीन माह के अंदर 1986 के पर्यावरण नियंत्रण अधिनियम के तहत ईको सेंसिटिव जोन घोषित करे।
हाईकोर्ट ने ईको सेंसिटिव जोन घोषित करने के मसले पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को पक्षकार बनाया और प्रदेश सरकार को भी ग्लेशियरों के अंतिम छोर से 25 किलोमीटर (सेना की जरूरत को छोड़कर) तक की दूरी पर कोई नया निर्माण न होने देने सहित कई निर्देश दिए।
सोशल ऑर्गनाइजेशन फॉर यूनिटी एंड नेचुरल डेवलपमेंट की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति राजीव शर्मा एवं न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने कहा कि ग्लेशियर को बनाने में प्रकृति को लाखों साल लगते हैं। एक या दो गैर जिम्मेदार पीढ़ियों की वजह से इन ग्लेशियरों को समाप्त नहीं होने दिया जा सकता। खंडपीठ ने कहा कि ये ग्लेशियर ही गंगा और यमुना के स्रोत हैं।
हाईकोर्ट ने ग्लेशियरों से दस किलोमीटर की दूरी तक जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल) पर रोक लगाते हुए उत्तराखंड सरकार को इन क्षेत्रों में पर्याप्त गैस और मिट्टी का तेल उपलब्ध कराने के निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा है कि गंगा और यमुना के जल की निर्मलता बनाए रखने में कोताही बरती गई है, इसलिए अब इनके तटों पर पड़ने वाले हर शहर में एसटीपी की व्यवस्था कर हर चौबीस घंटे में जल की गुणवत्ता जांचने और मीडिया के जरिए प्रतिदिन लोगों को इससे अवगत कराने की व्यवस्था की जाए।
खंडपीठ ने ग्लेशियरों को जाने वाले पर्यटकों की संख्या सीमित करने और उनसे ग्लेशियर टैक्स वसूलने, गंगोत्री और यमुनोत्री यात्रा मार्ग पर यात्रियों को हर दो किलोमीटर पर वहां के अपडेट मौसम की जानकारी प्रति घंटे देने, हर दो किलोमीटर पर पर्याप्त दवाओं तथा आक्सीजन सहित चिकित्सकों की नियुक्ति करने, गंभीर बीमार यात्रियों को हेलीकॉप्टर से अस्पताल पहुंचाने की सटीक व्यवस्था करने के निर्देश दिए।
खंडपीठ ने कहा कि प्रदेश सरकार ग्लेशियर से बीस किलोमीटर पहले नाका लगाकर हाईकोर्ट के दिशा निर्देशों का पालन सुनिश्चित करे। इसके साथ ही गंगा और यमुना नदियों के किनारे बसे हर शहर की नगरपालिका और नगर पंचायतों को छह माह के भीतर सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने, ग्लेशियरों से बीस किलोमीटर दूर तक किसी भी प्रकार के प्लास्टिक और पॉलिथीन पर रोक लगाने सहित कई निर्देश दिए।
खंडपीठ ने कहा कि उत्तराखंड के शहर और कस्बों में कचरा, पत्तियां आदि को जलाए जाने से प्रदूषण बढ़ रहा है। इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ संगत नियमों के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।
हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कोर्ट ने कहा कि विश्व में उपलब्ध कुल जल का तीन प्रतिशत पानी पीने योग्य है और इसका 67 प्रतिशत पानी ग्लेशियर में जमा है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश में 9575 ग्लेशियर हैं। इनमें से गंगोत्री ग्लेशियर ही 30 किमी लंबा है। इन ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियां देश की लगभग 30 प्रतिशत जनसंख्या के लिए पेयजल का स्रोत हैं।
निर्माण कार्यों, वृक्षों के कटान तथा अनावश्यक मानव गतिविधियों के बढ़ने से ग्लेशियरों से पानी के रिसाव में कमी होने के गंभीर दुष्परिणाम हो रहे हैं। मानवीय गतिविधियों से नदियां भी प्रदूषित हो रही हैं। इस पर रोक के लिए गंभीर प्रयास किए जाने की जरूरत है। हाईकोर्ट ने कहा कि ग्लेशियरों का रंग काला पड़ता जा रहा है और उनको पहले जैसी स्थिति में लाना सबकी जिम्मेदारी है। पेड़ों का अंधाधुंध कटान और मानवीय गतिविधियां पारिस्थितिकी और पर्यावरण पर कहर ढा रहा है।
सोशल ऑर्गनाइजेशन फॉर यूनिटी एंड नेचुरल डेवलपमेंट के महासचिव तारादत्त राजपूत की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने नैनीताल, खुर्पाताल, भीमताल, सातताल और नौकुचियाताल में झीलों से दो किलोमीटर की हवाई दूरी तक निर्माण कार्यों पर रोक और पांच किलोमीटर की हवाई दूरी तक पेड़ों के कटान पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया।
सोमवार को हुई सुनावाई में न्यायमूर्ति राजीव शर्मा एवं न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने कहा कि निर्माण कार्य होने पर जिलाधिकारी और प्राधिकरण के अध्यक्ष जिम्मेदार होंगे। कोर्ट ने कहा कि कोई जरूरी सरकारी निर्माण कार्य होने पर अदालत से अनुमति लेनी होगी।