नीलामी में बैंक अगर सीबीआई और सीवीसी की मदद चाहते हैं तो यह क्यों ठीक नहीं है?

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खबर है कि बैंक कर्ज न लौटाने वाली कंपनियों की परिसंपत्तियां बेचने में सीबीआई और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की मदद चाहते हैं. वे चाहते हैं कि बिक्री से पहले ये एजेंसियां इन सौदों को हरी झंडी दें.
यह बेतुकी बात है. बैंकों की इस इच्छा का मतलब है कि बाद में अगर उन पर गड़बड़ी का कोई आरोप लगे तो वे कह दें कि सीबीआई और सीवीसी ने तो जांच की थी. पेशेवर उपक्रमों से इस तरह की अपेक्षा नहीं की जाती. इससे यह भी बता चलता है कि बैंकिंग व्यवस्था आज कैसे चल रही है.
बैंकों को चिंता है कि डिफॉल्ट करने वाला कोई प्रमोटर ही कहीं किसी फ्रंट या कागजी कंपनी के जरिये अपनी परिसंपत्तियां कौड़ियों के भाव वापस न खरीद ले. लेकिन इसका समाधान यह नहीं है कि सीबीआई और सीवीसी को परिसंपत्तियों के बिक्री प्रस्तावों को मंजूरी देने जैसे काम से लाद दिया जाए. समाधान यह है कि परिसंपत्तियों की बिक्री के लिए एक पारदर्शी बाजार तैयार किया जाए. अगर बाजार में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा होगी तो बैंकों को नीलामी में अच्छे दाम मिलेंगे. कारोबारी फैसलों के नतीजे लाभ के रूप में भी सामने आते हैं और नुकसान के रूप में भी. सरकार को अपनी वह संस्कृति छोड़नी होगी जो हर उस निर्णय को शंका की दृष्टि से देखती है जिसके नतीजे में घाटा हुआ हो.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भी अपने मैनेजरों को बाजार से जुड़े फायदों में भागीदार बनाना होगा. यह हास्यास्पद है कि उनका वेतन निजी क्षेत्र में काम कर रहे अपने समकक्षों की कमाई का एक छोटा सा हिस्सा होता है. ये अधिकारी जो फैसले लेते हैं उनमें एक तरफ जोखिम की आशंका होती है तो तो दूसरी तरफ फायदे की उम्मीद. इसलिए उनके वेतन में इस तथ्य का भी योगदान होना चाहिए कि समय के साथ उनके फैसले कितने खरे उतरे. उनकी कमाई का एक हिस्सा तीन साल की अवधि के दौरान किए गए प्रदर्शन से तय होना चाहिए. आय का एक बड़ा हिस्सा उन्हें शेयरों के रूप में भी दिया जा सकता है. समाधान सीबीआई और सीवीसी पर जिम्मेदारी डालने से नहीं बल्कि अच्छे प्रदर्शन को प्रोत्साहन देकर होगा.