राजनीति में परिवारवाद

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युग युग से आमतौर पर यही चलन रहा है कि “राजा” का बेटा “राजा” ही होता है, बल्कि “राजा” का बेटा ही “राजा” होता है । किसी राजा के बेटा न हो तो बेटी या परिवार का कोई अन्य सदस्य राजा बनता रहा है । अन्य क्षेत्रों में भी अधिकांश लोगों ने इसी चलन को बढावा दिया है । डाक्टर का बेटा या बेटी डाक्टर ही बनाये जाते हैं । मेरे एक मित्र डाक्टर साहब ने अपने प्रतिभाहीन और लगभग निष्क्रिय बेटे को लाखों रुपये का अनुदान और रिश्वत देकर केवल इसलिये डाक्टर बनाने का प्रयास किया क्योंकि उनके क्लिनिक को उनके बाद चलाने के लिये डाक्टर कहलाने वाला कोई चाहिये था । अनेक बच्चे तो केवल इसीलिये पढाई भी अधिक नहीं करते रहे क्योंकि उन्हें अपने पारीवारिक व्यापार या धंधे को ही आगे बढाना होता था । परंतु कला के क्षेत्र में यह प्रयास असफ़ल ही होता रहा है ।

हिन्दी फ़िल्म जगत को तो यह श्राप ही मिला हुआ है कि किसी फ़िल्म निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्री, गीतकार, संगीत निर्देशक, गायक की दूसरी पीढी कुछ भी करने में सफ़ल नहीं होगी । अनेक फ़िल्मी लोग अपने बेटे या बेटी को फ़िल्म जगत में स्थापित करने के प्रयास में खुद भी बर्बाद हो गये । राजनीति के क्षेत्र में पहले इतना अधिक परिवारवाद नहीं था । फ़िर भी स्वतंत्र भारत में शुरू से ही कुछ बडे नेताओं ने परिवारवाद को ही प्राथमिकता दी, और अनेक बडे नेता इस प्रयास में सफ़ल भी हुए । परंतु वर्तमान में यह प्रथा अपनी सारी गरिमा खोने लगी है । किसी भी दल का कार्यकर्ता, जीवनभर केवल कार्यकर्ता ही बना रह जाता है, और दरी बिछाने, माइक लगाने, मंच तैयार करने, भीड जुटाने, और प्रचार सामग्री बांटने में ही उसका जीवन समाप्त हो जाता है । वह कभी भी स्वयं नेता नहीं बन पाता, क्योंकि उसके दल के नेता की पत्नी, बेटा, बेटी, भतीजा, भतीजी, साला, बहन, बहनोई, भाई, भाभी में से कोई भी, कभी भी नेता बनकर अवतरित हो जाता है ।

इस प्रकार नेता बनने वाले का इसमें कोई दोष नहीं होता, क्योंकि उसको “साहब” कहकर पैर छूने वालों की कोई कमी नहीं होती । वह व्यक्ति नेता बनने लायक है या नहीं, इस बारे में अवसरवादी चमचे कभी सोचते भी नहीं; बस “साहब” कहकर आगे-पीछे घूमने लगते हैं । कम उम्र के युवा भी “साहब” कहलाकर अकडने लग जाते हैं । किसी वरिष्ठ नेता को साहब कहा जाये, इसमें मेरा कोई विरोध नहीं है; परंतु नये नये युवा को केवल परिवारवाद और चापलूसी के कारण “साहब” कहा जाये, यह कम से कम मुझे तो स्वीकार नहीं है । नेतागण यह कहते रहते हैं कि हमारे परिवार के सदस्य भावी नेता नहीं बनेंगे तो क्या सडक पर भीख मांगेंगे ।

यह परम्परा किसी की काबलियत को जांच कर ही अपनाई जानी चाहिये, अन्यथा केवल सम्बन्धित नेता को या उसके दल को ही नहीं, पूरे देश को उसका बुरा परिणाम भुगतना पडता है । लगभग सभी प्रसिद्ध राजनेताओं को अपने परिवार के सदस्यों के अलावा कोई अन्य व्यक्ति नज़र ही नहीं आता, और इसलिये हर नेता का और हर दल का सामान्य कार्यकर्ता केवल सामान्य कार्यकर्ता ही बना रह जाता है, भले ही वह अपने नेता और दल के प्रति कितना भी निष्ठावान और प्रतिभावान क्यों न हो । मेरा स्पष्ट मत है कि कम से कम वर्तमान राजनीति में केवल परिवारवाद को ही आगे बढाने की अस्वस्थ और गलत परम्परा को अपने स्वयं के, सम्बन्धित राजनीतिक दल के, और देश के हित में आंख मींचकर अपनाने की स्वार्थपूर्ण नीति को बदलने की नितांत आवश्यकता है ।

निर्णय तो राजनेताओं को ही लेना है, परंतु मैं बिना मांगी अपनी राय तो दे ही सकता हूं । मतदाता भी इस बारे में सोचें और ऐसे पारीवारिक नेताओं को समर्थन देने से पूर्व उनमें से हर एक की काबलियत और क्षमता का आंकलन अवश्य करें । ऐसा न हो कि यह परिवारवाद की अस्वस्थ परम्परा बाद में विवाद का कारण बन जाये और फ़िर सभी लोग पछताने लगें ।

किशन शर्मा,
मंच संचालक और विविध भारती के पूर्व वरिष्ठ उद्घोषक एवं ज्येष्ठ पत्रकार
901, केदार, यशोधाम एन्क्लेव, प्रशांत नगर, नागपुर – 440015 ; मोबाइल – 8805001042