एक इंसान नींद से जगता है। उसे अपने बारे में कुछ याद नहीं है। पहचान से संबंधित कोई चीज भी नहीं है। वो क्या करे, किससे अपने बारे में पूछे। बहुत जोर लगाया, लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा।
फिल्म ‘फीवर’ का ये प्लॉट अंग्रेजी फिल्म ‘बॉर्न आईडेंटिटि’ (2002) से मिलता-जुलता है। या कहिये पूरी बॉर्न सिरीज की अवधारणा ही इस प्लॉट के आसपास घूमती रही है। फिल्म की कहानी एक एक्सीडेंट से शुरू होती है। एक इंसान अस्पताल में बेहोशी से जगा है। डॉक्टर उसके बारे में कुछ नहीं जानते। वो खुद भी अपने बारे में कुछ नहीं जानता। सिर्फ कुछ हल्की सी परछाइयां है, जिनका पीछा करते हुए वह व्यक्ति अपने बारे में केवल इतना जान पाता है कि वह ज्यूरिख जा रहा था।
घटना के अगले दिन होटल में उसे एक लड़की मिलती है, जो उसे अपना नाम काव्या चौधरी (गौहर खान) बताती है। उस व्यक्ति के हाथ में एक घड़ी है, जिससे वह अंदाजा लगाता है कि उसका नाम आर्मेन सलेम है और वह एक कॉन्ट्रेक्ट किलर है। उसे लगता है कि उसके हाथों किसी लड़की रिया (गेमा एटकिन्सन) का खून हुआ है। रहस्यमयी परिस्थितियों में काव्या और आर्मेन एक-दूजे के करीब आने लगते हैं। एक दिन आर्मेन को लगता है कि उसे कोई करण नाम से पुकार रहा है।
उसे लगता है कि उसका असली नाम करण ही है। काव्या की नजदीकियों से उसे अपने बारे में कुछ और बातें पता चलती हैं, जैसे कि वह रिया को प्यार करता था। लेकिन वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाता। इधर काव्या की मौजूदगी दिन ब दिन और रहस्यमयी होती जाती है और एक दिन आर्मेन उर्फ करण को सब याद आ जाता है। वो जान कर हैरान हो जाता है कि काव्या का असली नाम पूजा है और वो उसकी पत्नी है।
ऐसा कतई नहीं है कि इतनी कहानी से एक सस्पेंस थ्रिलर के सारे राज खुल गए हैं। कहानी में अभी बहुत कुछ ऐसा है, जिसे बयां नहीं किया गया है। बावजूद इसके फिल्म ज्यादा बांध नहीं पाती। दो घंटे की यह फिल्म जरूरत से ज्यादा स्लो है। रोचकता का अभाव है।
राजीव खंडेलवाल अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन वह करण के किरदार को ढंग से निभा नहीं पाए। लेखन में भी कई कमियां हैं। अंत में जिस तरह से इस पूरी कहानी का अस्तित्व और कारण गिनाए गए हैं, उसे देख लगता है कि इसे जबरदस्ती सस्पेंस-थ्रिलर का जामा पहनाया गया है। विदेशी तारिकाएं हिन्दी बोलते हुए अजीब लगती हैं। ऐसा लगता है कि उन्हें अंग-प्रदर्शन के लिए फिल्म में लिया गया है।
गौहर खान का किरदार भी आंखों को सूकून देने के अलावा कुछ और नहीं है। जिस तरह का विषय है, फिल्म में तनाव नाम की कोई चीज नहीं है। ऐसा लगता है कि सब छुट्टियां मनाने आए हैं। बस संगीत अच्छा है। ‘फीवर’ अपने कॉन्सेप्ट से आकर्षित करती है, लेकिन कुछ देकर नहीं जाती। अंत में फिर एक बात। फिल्म का नाम ‘फीवर’ क्यों रखा गया है…