ऐसे विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों से हमारा कुछ भला नहीं होगा

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देश में उच्च शिक्षा की दशा को लेकर सरकार की चिंता सामयिक भी है और सराहनीय भी. लेकिन विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाने की उसकी योजना के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. मुट्ठी भर विश्वस्तरीय संस्थान बनाने के बजाय जोर विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए ऐसा माहौल तैयार करने पर होना चाहिए जिसमें वे दुनिया से होड़ ले सकें.
दरअसल विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी बनाने का यह विचार ही दोषपूर्ण है. ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं है कि कोई विश्वविद्यालय खुलते ही विश्वस्तरीय हो जाए. सरकार इसे बढ़िया से बढ़िया सुविधाएं दे सकती है लेकिन कोई विश्वविद्यालय कितना अच्छा है, यह इस बात से तय होता है कि उससे कितने ज्ञान का सृजन हो रहा है और उस ज्ञान की गुणवत्ता कैसी है. सबसे जरूरी चीज है फैकल्टी और उस फैकल्टी की अगुवाई या निगरानी में होने वाला काम. यह क्रमिक विकास की प्रक्रिया है जो एक रात में पूरी नहीं हो सकती. इसलिए जोर पहले माहौल तैयार करने पर होना चाहिए.
इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले उच्च शिक्षा के ढांचे को चलाने वाली जो व्यवस्था है उसमें आमूलचूल बदलाव लाया जाए. अभी नियामक का जोर निगरानी और क्या पढ़ाया जा रहा है, इस पर होता है. इसके बजाय यह नतीजों पर होना चाहिए. विश्वविद्यालयों को संचालन और वित्तीय प्रबंधन में स्वायत्तता दी जानी चाहिए. नियामक यह सुनिश्चित करे कि विश्वविद्यालय मानकों के अनुरूप चलें, अपने दावों पर खरे उतरें और सबके साथ बराबरी से बर्ताव करें.
अभी नियामक ही अप्रभावी है इसलिए प्रस्तावित विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों को इस नियामक से छूट देने से उनकी सफलता सुनिश्चित नहीं होगी. विश्वविद्यालयों को फलने-फूलने के लिए एक माहौल की जरूरत होती है. इसके लिए जरूरी है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव लाया जाए. इस दिशा में पहला कदम एक सक्रिय और प्रभावी नियामक है. यह काम आसान नहीं होगा और इसमें समय भी लगेगा. लेकिन आखिर में इसकी परिणति एक ऐसी व्यवस्था के रूप में होगी जो सबका भला करेगी न कि सिर्फ कुछ का.