मुंबई। देश भर की जेलो मे हजारों बंदी ऐसे निरूद्ध जो उम्र के अंतिम पड़ाव हैं। उनका शरीर बहुत कमजोर है। काया जर्जर हो चुकी है। जिस उम्र में उनको परिवार के साथ होना चाहिए उस उम्र में वह सलाखों के पीछे जीवन काटने को मजबूर हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्पेशल मॉनिटर डॉ. योगेश दुबे की ओर से मानवाधिकार आयोग में पहल की गई है, जिसमें उन्होंने वृद्ध/अशक्त तथा जुर्माने के अभाव में बंद कैदियों की रिहाई में देरी से संबंधित मुद्दे पर प्रकाश डाला है, जो देश भर की विभिन्न जेलों में बंद हैं।
आयोग सचिव, गृह मंत्रालय, भारत सरकार महानिदेशक (कारागार), सरकार। उत्तर प्रदेश सरकार ने चार सप्ताह के भीतर रिपोर्ट मांगी है। आगरा निवासी मानवाधिकार कार्यकर्ता नरेश पारस ऐसे बंदियो की रिहाई को लेकर लंबे समय से कार्य कर रहे हैं। उन्होंने डॉक्टर दुबे जी को बताया कि देशभर की जेलों की व्यवस्था अत्यंत ही खराब है।
क्षमता से अधिक लोग वहां पर रह रहे हैं। जो बंदी अत्यंत ही बुजुर्ग हो चुके हैं तथा मरने के करीब हैं। ऐसे अनेक लोगों को देशभर की जेलों में मानसिक विकार हो चुका है और अनेक लोग इनमें दिव्याग भी हो चुके है। मानसिक अवसाद में हैं। आगरा की केन्द्रीय कारागार में तमाम ऐसे बंदी हैं जिनकी उम्र बहुत अधिक है चल फिर पाने में असमर्थ हैं। शौच तथा अन्य जरूरी नित्यकर्मों के लिए उनको बंदी रक्षकों अथवा अन्य बंदियों की मदद से उठाना और बैठाना पड़ता है। ये बंदी जेलो के ऊपर अनावश्यक बोझ बने हुए हैं।
इनकी सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है। अलग से इनके ईलाज के लिए उच्च संस्थानों को रेफर किया जाता है. तो अटेण्डेंट की व्यवस्था की जाती है तथा इनकी बीमारी पर अत्यधिक खर्च किया जाता है। ये बंदी भी समाज की संवेदना के पात्र है। अगर ऐसे बंदियों को रिहा कर दिया जाय तो सरकार का अनावश्यक खर्च रूक सकता है। वृद्ध बंदियों की अंतिम इच्छा यही रहती है कि वह अपने परिजनों के बीच में अपना अंतिम समय बितायें और उन्हीं के सामने अपने प्राण त्यागे कोई भी बंदी यह नहीं चाहता है कि उसकी मौत जेल की चहारदीवारी में हो और उसके शरीर की चीड़-फाड़ (पोस्टमार्टम) हो अपने अंतिम समय को बंदी अपने परिजनों के साथ गुजारना चाहते है।
परिवार भी इनकी सुध नहीं ले रहे हैं। अभी हाल ही में 07.01.2023 को आयोध्या जिला कारागार से 98 वर्षीय वयोवृद्ध बंदी रामसूरत को रिहा किया गया है। उन्होंने अपनी मूल सजा पूरी कर ली थी लेकिन जुर्माना जमा न कर पाने के कारण सजा काटने को मजबूर थे। उनसे घर वाले भी मिलने नहीं आते थे। समाज के उदार लोगो ने उनका जुर्माना जमा करके रिहा कराया। रिहाई होने पर भी उनको कोई लेने नहीं आया था। जेल अधीक्षक ने जेल की गाड़ी से उनको घर भिजवाया था।
आगरा की सेंट्रल जेल में निरूद्ध रहे बुलंदशहर के बंदी महावीर को नरेश पारस ने वर्ष 2015 मे अपनी जेब से पांच हजार रूपये का जुर्माना जमा करके रिहा कराया था। बुजुर्ग होने के कारण उनको कम सुनाई एवं कम दिखाई देता था। देशभर की जेलों में ऐसे अत्यंत वृद्ध बंदियों की संख्या बहुत अधिक हो सकती है। इन बंदियों के संवैधानिक अधिकारों का हनन हो रहा है।डॉ.दुबे ने नरेश पारस द्वारा बताए गए तथ्यों के आधार पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से अनुरोध किया कि देशभर की विभिन्न जिला कारागार तथा केन्द्रीय कारागार में निरूद्ध सभी कैदियों का स्वास्थ्य सर्वे कराया जाए।
नए सर्वे के आधार पर एसओपी बनाकर अत्यंत वृद्ध कैदियों को रिहा कराया जा सकता है। ताकि कारागारों में बंदियों के मानवाधिकार भी सुरक्षित रह सके। ऐसा करने से वह पुनः समाज में शामिल हो पाएंगे और अपनी बची जिंदगी शांति से बिता पाएंगे। अभी हाल ही में भारत सरकार के वित मंत्री ने यह घोषणा करके प्रावधान भी किया है कि जिन जिन लोगों की जमानत अवधि पूरी हो चुकी है उनको भी रिहा किया जाए। सर्वे में ऐसे बंदियों को भी चिन्हित किया जाए जिन्होंने अपनी मूल सजा पूरी कर ली है लेकिन जुर्माने के अभाव में सजा काटने को मजबूर हैं।
उनको भी रिहा कराया जाए। इससे पूर्व भी डॉक्टर योगेश दुबे बच्चों के लिए अनेक नीतियां और कानून बनाए हैं। अनेक बच्चों को जेल से छुड़ाया है। वह दिव्यांग कैदियों के भी विषय पर कार्य कर रहे हैं। उन्होंने देशभर की अनेक जेलों का निरीक्षण किया है तथा महिलाओं कैदियों और बच्चों के जीवन में सुधार लाने के लिए पर एक विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंपी है।
इस पहल से कैदियों में उम्मीद की किरण जगी है। डॉक्टर योगेश दुबे को राष्ट्रीय युवा पुरस्कार तथा दिव्यांगों के लिए विशेष कार्य करने पर भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय दिव्यांगन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।