परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता हासिल कर प्रतिष्ठित वैश्विक परमाणु व्यापार का अहम हिस्सा बनने की भारत की कोशिश पूरी तरह से नाकामयाब नहीं हुई है. दक्षिण कोरिया के सियोल में हुई एनएसजी की बैठक में चीन और कम से कम सात दूसरे देशों ने फिर से यह कहकर चिंता जताई थी कि परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने वाले देशों को इस समूह का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है. भारत के वार्ताकारों ने जोर देकर कहा कि ऐसा करना न्यायसंगत है क्योंकि परमाणु अप्रसार के मामले में भारत का रिकॉर्ड बेदाग रहा है. परमाणु कारोबार के नियम-कायदे तय करने वाले एनसजी ने जब 2008 में भारत को विशेष छूट दी थी तो इसका आधार यही बात थी. दुर्भाग्य से इसके बावजूद 48 देशों वाला यह समूह इस मुद्दे पर किसी सहमति पर नहीं पहुंच सका.
लेकिन बैठक के कुछ दिन बाद ही एक अमेरिकी अधिकारी का बयान आया है कि आगे एक ऐसा रास्ता है जिसके जरिये 2016 के आखिर तक भारत एनसजी का पूर्णकालिक सदस्य बन सकता है. इस बीच भारत के लिए एक उत्साहजनक संकेत यह भी है कि इस मुद्दे पर भारत के साथ बातचीत जारी रखने के लिए एक विशेष दूत नियुक्त किया गया है. अतीत भी बताता है कि एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत की कोशिश कामयाब हो सकती है. अगस्त 2008 में हुई एनसजी की बैठक के बाद जब उसी साल सितंबर में भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से कारोबार करने की विशेष छूट दी गई थी तो इसका भी पहले काफी विरोध हुआ था. लेकिन अग्रसक्रिय कूटनीति ने इस विरोध को विफल कर दिया था.
सियोल में नाकामयाब हुआ यह प्रयास एक आत्ममंथन का मौका लेकर भी आया है. भारत को खुद से यह पूछना चाहिए कि इस निरंतर विरोध के बावजूद वह कितनी और राजनीतिक और कूटनीतिक ऊर्जा खर्च करना चाहता है. यह भी कि अपने रणनीतिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उसके पास क्या वैकल्पिक रास्ते हैं. 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के मद्देनजर भारत को जो छूट दी गई थी उसने कई तरह से भारत की मदद की. इसके बाद भारत ने रूस और फ्रांस जैसे देशों के साथ परमाणु रियेक्टरों और ऑस्ट्रेलिया के साथ परमाणु ईंधन की आपूर्ति के लिए समझौते किए. यह सही है कि 2010 से 2013 के बीच एनएसजी के नियमों में जो सुधार हुआ था उसके मुताबिक परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने वाले किसी भी देश के साथ ‘एनरिचमेंट और रीप्रोसेसिंग’ (ईएनआर) के क्षेत्र में कारोबार नहीं किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत और किसी दूसरे एनएसजी सदस्य के साथ ईएनआर कारोबार नहीं हो सकता. यह तर्क दिया जाता है कि भविष्य में भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे प्रावधान न बनें, इसके लिए बेहतर है कि किसी बाहरी याचक के बजाय एक प्रभावशाली सदस्य बना जाए.
फिर भी ईएनआर प्रतिबंध को देखते हुए भारत को क्या एनएसजी में दूसरे दर्जे का नागरिक बनने की जरूरत है? खासकर जब उसके पास इस मामले में विकल्प अपने घर में ही मौजूद हैं? एक तरह से एनएसजी की यह बहस हमें गुटनिरपेक्षता की बुनियादी दिशा की याद दिलाती है. अगर इस अवधारणा को आज भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के लिहाज से देखा जाए तो अपने विशाल ऊर्जा बााजार को देखते हुए हमें परमाणु कारोबार के वैश्विक मंच पर आर्थिक साझेदार तलाशने की दिशा में असुरक्षित महसूस करने की जरूरत नहीं है.