सर जॉन चिलकॉट की अगुवाई वाले पैनल ने बुधवार को जो ‘इराक वार इंक्वायरी रिपोर्ट’ जारी की, वह ब्रिटेन में कइयों के लिए एक तरह से उसकी पुष्टि ही है जो वे पहले से मानते थे. फिर भी इस रिपोर्ट के निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने इराक पर हमले के कारणों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया. रिपोर्ट यह भी कहती है कि इस मसले को शांति से सुलझाने के लिए जो विकल्प हो सकते थे, उन्हें पूरी तरह से आजमाए बिना ही ब्रिटेन को युद्ध में उतार दिया गया. इन निष्कर्षों में समकालीन राजनीति और भविष्य की नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता है. जांच में यह भी पता चला है कि ब्लेयर सरकार इस युद्ध के परिणामों को झेलने के लिए भी पूरी तरह से तैयार नहीं थी.अमेरिका और ब्रिटेन के इराक पर हमला करने और सद्दाम हुसैन की सरकार को गिराने के 13 साल बाद भी इस युद्ध का औचित्य साबित नहीं किया जा सका है. ब्लेयर और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसके लिए जो कारण दिए थे वे हवा-हवाई साबित हो चुके हैं. न तो इराक में कोई व्यापक जनसंहार के हथियार मिले, न ही हमला करने वाले अल कायदा और सद्दाम बीच कोई संबंध साबित कर पाए. यानी उस युद्ध का कोई औचित्य नहीं था जिसके नतीजे में अब तक लाखों इराकी मारे जा चुके हैं और उनकी एक बड़ी आबादी अपनी जड़ों से उखड़ चुकी है. इस युद्ध के चलते इराक में जो बर्बादी हुई और अराजकता फैली उसने कई अतिवादी संगठनों के लिए उर्वर जमीन तैयार कर दी. आज दुनिया में सबसे बर्बर आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएस) की जड़ें ऐसे ही एक संगठन 'अल कायदा इन इराक' तक जाती हैं. इससे भी बुरा यह है कि इन बड़ी शक्तियों ने इराक की त्रासदी से कोई सबक नहीं सीखा. इराक पर हमला विनाशकारी साबित हुआ है, यह साफ दिखने पर भी पश्चिमी जगत ने 2011 में लीबिया में एक और सरकार गिरवा दी. इराक वाली गलती फिर दोहराई गई जिसने आतंकियों के लिए एक और स्वर्ग तैयार कर दिया. ब्रिटेन के मौजूदा प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने भी 2003 में इराक युद्ध के पक्ष में वोट दिया था. कैमरन सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ भी सैन्य कार्रवाई चाहते थे लेकिन उनका यह प्रस्ताव 2013 में ब्रिटिश संसद ने खारिज कर दिया. अमेरिका और ब्रिटेन ने भले ही सीरिया पर सीधे हमले की अपनी योजना टाल दी हो लेकिन, वे वहां पर सरकार विरोधी गुटों को मदद देना जारी रखे हुए हैं. इससे वहां हालात खराब होते जा रहे हैं जिसका फायदा आईएस और जबात अल नुसरा जैसे आतंकी संगठनों को हो रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि तानाशाहों का राज भी बर्बरता का होता है. लेकिन लड़ाई या फिर गृहयुद्ध के जरिये उन्हें सत्ता से बेदखल करना कहीं ज्यादा खतरनाक होता है जैसा कि संकट में घिरे ये देश साबित कर रहे हैं. आज पश्चिमी एशिया और पूर्वी अफ्रीका में जो अराजकता फैली हुई है उसकी जड़ में इराक युद्ध ही है. यह अस्थिरता कब खत्म होगी कोई नहीं जानता. टोनी ब्लेयर की मुद्रा अब भी ऐसी नहीं लगती कि उन्हें कोई पछतावा है लेकिन, उनके उत्तराधिकारी अगर भविष्य में ऐसी गलतियां रोकने के प्रति गंभीर हैं तो वे चिलकॉट समिति के निष्कर्षों से आंखें मूंदे नहीं रह सकते. जैसा कि लेबर पार्टी के मुखिया जेरमी कॉर्बिन का कहना था, ‘चिलकॉट रिपोर्ट ने जिन फैसलों की कलई खोली है उन्हें लेने वालों को अपने फैसलों के नतीजे भुगतने चाहिए. चाहे वे जो भी हों.’