भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में कड़वाहट के एक और दौर के बीच बीते क्रिसमस ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लाहौर दौरा अब किसी सुदूर अतीत की बात लगने लगा है. सार्वजनिक आरोपों-प्रत्यारोपों के बाद कश्मीर में हिंसा और अशांति का सिलसिला शुरू हुआ और अब भारत विरोधी प्रदर्शनों में पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी संगठन केंद्रीय भूमिका में हैं. लश्कर-ए-तैयबा के हाफिज सईद ने पाकिस्तान सरकार को चेतावनी दी है कि अगर गृहमंत्री राजनाथ सिंह को इस्लामाबाद में हो रही सार्क देशों के गृहमंत्रियों की बैठक में हिस्सा लेने दिया गया तो इसका देशव्यापी विरोध किया जाएगा. उधर, हिजबुल मुजाहिदीन के सैयद सलाहुद्दीन ने नवाज शरीफ सरकार से कहा है कि वह भारत से अपना उच्चायुक्त वापस बुला ले और पड़ोसी देश के साथ व्यापारिक और कूटनीतिक रिश्ते खत्म कर दे.
भारत विरोधी आतंकी संगठनों की सक्रियता पर एक हद तक पाकिस्तान सरकार का ही नियंत्रण रहता है. उदाहरण के लिए जब 2004 से 2007 के बीच भारत और पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में बात कर रहे थे तो सलाहुद्दीन की सक्रियता न के बराबर दिखती थी. इसी तरह भारत और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के दबाव के चलते हाल के सालों में हाफिज सईद की सार्वजनिक रूप से सक्रियता भी अपेक्षाकृत कम ही रही है. अब वह खुलेआम भारत पर हमले कर रहा है और शरीफ सरकार को चुनौती दे रहा है. यह संकेत है कि सईद और उस जैसे दूसरे तत्वों को राजनीतिक और सैन्य व्यवस्था के कुछ हिस्सों से समर्थन मिल रहा है. और सेना और सरकार के बीच जिस तरह का समीकरण है उसे देखते हुए इन तत्वों की गतिविधियां सरकार की सत्ता के क्षरण को आगे बढ़ाने का काम कर रही हैं.
भारतीय वार्ताकारों के साथ अंदरखाने बातचीत में शरीफ सरकार तर्क दे सकती है कि ये गतिविधियां कश्मीर में नागरिकों की मौत पर पैदा हुए गुबार को निकालने का जरिया भर हैं. लेकिन जो आतंकी संगठन खुद ही अनैतिक रूप से लोगों की हत्या करते हैं या उन्हें घायल करते हैं वे आम लोगों की मौत पर चिंतिंत होंगे यह सोचना खुद को भुलावे में रखने जैसा है. दूसरे, अगर पाकिस्तान की सरकार को किसी मुद्दे पर लामबंदी करने के लिए ऐसे तत्वों की जरूरत पड़ रही है तो यह उसकी अपनी ताकत के बारे में क्या बतलाता है?
इसके अलावा एक और बात है जो इससे भी अहम है. यह बताता है कि पाकिस्तान सरकार एक बार फिर नहीं समझ पा रही कि राजनीति में किसी आतंकी या आतंकी संगठन का कद बढ़ाने की कीमत क्या हो सकती है. वह सोच रही है कि अतिवादी संगठनों को कुछ हफ्तों तक भारत विरोधी अभियान चलाने की आजादी देने से उसे फायदा होगा और यह फायदा इससे उसके अपने समाज को होने वाले नुकसान से ज्यादा होगा.
राजनाथ सिंह ने वहां जाने का फैसला कायम रखा है और यह उन्होंने ठीक ही किया है. दोनों पक्षों को संवाद के तार जोड़े रखने चाहिए और दोनों को मौजूदा गतिरोध पर ईमानदारी से अपना नजरिया साझा करने की भी जरूरत है. राजनाथ सिंह वहां एक ऐसे माहौल में पहुंच रहे हैं.जिसे ‘नॉन स्टेट एक्टर्स’ ने और भी बदतर बना दिया है और दोनों पक्षों को इस स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए. अपनी संकट प्रबंधन प्रक्रियाओं पर चर्चा करने के लिए इससे बढ़िया स्थिति नहीं हो सकती.