कम्पनियों के काम के तरीक़ों में आया है ये बड़ा बदलाव, श्रमिकों को नहीं मिलता..

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प्रतीकात्मक तस्वीर

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के अमरीश दुबे और इंडिकस फाउंडेशन के लविश भंडारी द्वारा लिखित ‘इमर्जिंग एंप्लॉयमेंट पैटर्न ऑफ ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार कहा गया है कि साल 2014 के बाद रोज़गार की तुलना में जनसंख्या में वृद्धि दोगुनी रफ़्तार से हुई है। ‘नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ), ‘एंप्लॉयमेंट-अनइंप्लॉयमेंट सर्वे’ ऑफ 2004-05 और 2011-12 के साथ ही 2017-18 के समय के लेबर फोर्स की तुलना की गई है। इसमें पाया गया है कि पिछले 15 साल की समय अवधि में रोज़गार में वृद्धि की दर 0.8 फ़ीसदी रही है। जबकि इस दौरान की जनसंख्या वृद्धि दर 1.7 फ़ीसदी रही है।

साल 2012 से 2018 के दौरान देश में कंपनियों ने कैजुअल लेबर यानी बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले श्रम को अधिक महत्व दिया है। बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले रोज़गार एक तरह से घरेलू नौकर के समान समझे जा सकते हैं। इसमें आपको श्रम के बदले में कम पैसा देना होता है। इसके साथ ही काम का माहौल और जॉब सिक्योरिटी तथा अन्य चीज़ें कॉन्ट्रैक्ट की तुलना में नहीं के बराबर होती हैं।

एक असंगठित क्षेत्र की तरह है, जहां ना तो काम की जगह रजिस्टर्ड होती है। और ना ही किसी भी तरह के श्रम क़ानूनों का पालन करना अनिवार्य माना जाता है। यही कारण है कि कंपनियां बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों को ज़्यादा महत्व देती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2012 में जहां बिना कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारियों की संख्या 2.44 करोड़ थी। जो 2018 में बढ़कर 3.61 करोड़ हो गई है। वहीं कॉन्ट्रैक्ट वाले कर्मचारी सन 2012 के 2.65 करोड़ की तुलना में 6 साल बाद 2.80 करोड़ ही बने रहे।