वो फिल्में जो बाहुबली से ज्यादा दावेदार थीं नेशनल अवार्ड की

0
268

एक दशक पहले तक नेशनल फिल्म अवार्ड में मनोरंजन करने वाली फिल्म का अवार्ड आमतौर पर किसी बॉलीवुड फिल्म को मिला करता था। जबकि अन्य श्रेणियों के श्रेष्ठ पुरस्कार तमिल, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला और मराठी फिल्मों के नाम होते थे। एक तरह से नेशनल फिल्म अवार्ड भारत में हिन्दी के इतर बनने वाले सिनेमा को पहचान दिलाने और उसे जिंदा रखने में योगदान देने लगा था।

लेकिन 63वें नेशनल फिल्म में जिन नामों की घोषणा हुई है, उससे आभाष होता है कि अब इस अवार्ड की तस्वीर भी बदल रही है। धीरे-धीरे कर के यह अवार्ड भी फिल्मफेयर अवार्ड की भांति बॉलीवुड फिल्मों पर केंद्रित होता जा रहा है।

इस साल फीचर श्रेणी के छह स्वर्ण कमल पुरस्कारों में से तीन बॉलीवुड के खाते में गए। जिनमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक (संजय लीला भंसाली/बाजीराव मस्तानी) सर्वश्रेष्ठ डेब्यू डायरेक्टर (नीरज घेवन/मसान) और सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म (बजरंगी भाईजान) शामिल हैं। सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का चौथा पुरस्कार भी हिंदी के खाते में है।

जबकि सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली फिल्म बाहुबली ने हिंदी में 100 करोड़ रुपये कमाए थे और यह कीर्तिमान बनाने वाली वह साउथ की पहली डब फिल्म है। सीधे तौर पर बाहुबली बात करें तो भी यह फिल्म स्पेशल इफेक्ट के लिए ही याद रह जाती है। जबकि इसी साल में बॉलीवुड समेत भारत की अन्य भाषाओं में ऐसी फिल्में बनी हैं, जो नेशनल अवार्ड पाने का माद्दा रखती हैं। अगली स्लाइड में जानिए, उन फिल्मों के बारे में।
नेशनल फिल्म अवार्ड चयन ज्यूरी के नजदकी सूत्रों के मुताबिक फिल्म ‘मसान’ ने सर्वेश्रष्ठ फिल्म चुनी गई ‘बाहुबली’ को कड़ी टक्कर दी थी। ज्यूरी के सदस्यों में इन दोनों को लेकर लंबी बहस चली। लेकिन अंततः फैसला हुआ कि ‘बाहुबली’ ही सर्वश्रेष्ठ है। जबकि ‘मसान’ के निर्देशक नीरज घेवन को सर्वश्रेष्ठ डेब्यू डायरेक्टर अवार्ड देकर चलता कर दिया गया।

मसान वो फिल्म है, जिसे कांस फिल्म फेस्टिवल में देखने के बाद दुनियाभर के फिल्मों के जानकार खड़े होकर लगातार तीन मिनट तक ताली बजाते रहे थे। ‘मसान: अ सेलिब्रेशन ऑफ लाइफ, डेथ एंड एवरीथिंग इन बिटवीन’ ने साल 2015 में एक नये तरह के सिनेमा की ओर ध्यानाकर्षित किया था। इसमें कोई तकनीकी खिलवाड़ नहीं था, पैसों से बनाया गया सिनेमा नहीं था, फिल्म में जीवन की कहानी पर उसका दर्शन हावी था। जीवन दर्शन की रेल पर्दे पर धड़धड़ाती गुजरती है और कहानी पुल की तरह थरथराती रह जाती है।

इस श्रेणी में दूसरी फिल्म थी, ‘माझी’। सिनेमा अपने कथानकों में साधारण इंसान को नायक बनाता है। निर्देशक केतन मेहता की मांझी सच्चे अर्थों में यह काम किया था। बिहार के गया जिले में स्थित गहलोर गांव और वजीरगंज ब्लॉक के बीच एक ऊंचे पहाड़ को काट कर रास्ता बना देने वाले दशरथ मांझी (1934-2007) की कहानी को केतन ने इस तरह से रुपहले पर्दे पर उतारा था कि पहाड़ को काट दिए जाने से उभर आए रास्ते को पर्दे पर देखते वक्त खालीपन नहीं दिखता। ऐसा महसूस होता है मानो कोई अदृश्य ताजमहल खड़ा है!!

इसी श्रेणी की तीसरी फिल्म एंग्री इंडियन गॉडेसेस थी, जो नेशनल अवार्ड का माद्दा रखती थी। हमारे शास्त्रों में देवियां पूजनीय हैं लेकिन घर और समाज में उनका क्या स्थिति है? हमारे दौर के सबसे ज्वलंत प्रश्नों में एक यह भी है। इस पर तेज गति से मंथन हो रहा है और मंथन से अमृत तथा विष दोनों निकल रहे हैं। निर्देशक पैन नलिन बदलते हुए भारतीय समाज में स्त्रियों के संघर्ष बेहद प्रासंगिक फिल्‍म खड़ी की थी। पैन नलिन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह गुजरात से आते हैं और उनके पिता भी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचा करते थे। पैन अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में विशेष स्थान रखते हैं और उनकी एंग्री इंडियन गॉडेसेस कई देशों के फिल्म समारोहों में सराही गई।

चौथी फिल्म का नाम है, ‘मार्गरेटा विद द स्ट्रा’, जिसे नेशनल अवार्ड में महज मेंशन कर के छोड़ दिया गया। भारतीय सिनेमा में जिंदगी के पन्नों की तरतीब बदल कर कैसे कहानी बुनी जा सकती है, मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ इसका बढ़िया उदाहरण थी। इस तरह से मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ की कहानी ऐसी किशोरवय युवती का जीवन हमारे सामने लाती है, जो सेरेब्रल प्लेसी की शिकार है और अपनी यौन इच्छाओं का दमन नहीं करती। उसे लड़के हैंडसम लगते हैं और हमउम्र लड़की से भी उसे प्यार हो जाता है। ऐसे विषय पर फिल्म बनाने का साहस दिखाकर निर्देशिका शोनाली बोस बड़ा कदम उठाया था। ऐसे साहसी कार्यों को प्रोत्साहन की खूब जरूरत पड़ा करती थी।

इसी साल रिलीज हुई फिल्म ‘तितली’ में वो माद्दा था कि उसे नेशनल फिल्‍म अवार्ड में जगह दी जाए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लूटमार करने वाले परिवार की कहानी पर बनी यह फिल्‍म देश विदेश कई नामी फिल्म फेस्टिवल में जगह बनाने में कामयाब रही थी। विदेशी भाषा श्रेणी में इसके पास कई अवार्ड भी हैं, जो कई अन्य विदेशी फिल्म एसोसिएशनों ने दिए हैं। निर्देशक कनु बहल की यह फिल्म यथार्थवादी सिनेमा के काफी करीब पहुंची थी। बीते सालों में अनुराग कश्यप की इसी तरह की फिल्मों को नेशनल अवार्ड में जगह दी थी।