पिछले कुछ समय से भारत के अधिकांश लोगों की सोच, पसंद, भाषा और शब्दों में जो गिरावट आ गई थी, उसने मुझे ही नहीं, बल्कि अनगिनत देशवासियों को अस्वस्थ कर दिया था । मैंने तो फ़ेसबुक और इन्टरनेट से एक महीने के लिये सम्बन्ध ही विच्छेद कर लिया था । इसका मुख्य कारण हर क्षेत्र में बढती जा रही स्तरहीनता ही रहा है । बात केवल राजनीति के क्षेत्र की नहीं है । राजनीति के क्षेत्र में तो इस तरह की असभ्यता इस बार पहली ही बार दिखाई दी है । किसी भी राजनेता ने सभ्यता, शालीनता और विनम्रता का प्रदर्शन ही नहीं किया । अधिक से अधिक निचले दर्जे की बातें सभी नेतागण कहते रहे । इस बार व्यक्तिगत स्तर पर भी कीचड उछालने की होड लगी रही । मैं उन शब्दों को दोहराना नहीं चाहता, जो इस बार अनेक राजनेताओं ने एक-दूसरे के विरुद्ध प्रयुक्त किये ।
वास्तव में उस तरह के शब्द और वैसी भाषा मुझे ही नहीं, किसी भी सामान्य, सभ्य, सुशिक्षित, शालीन व्यक्ति को प्रयुक्त करने में असमर्थता ही महसूस होगी । राजनेताओं का तो यह नियम ही बन गया है कि केवल चुनाव के कुछ दिनों में वो दयनीय भिखारी बन कर गली गली, मोहल्ले-मोहल्ले, घर-घर हाथ जोडे हुए भीख मांगने का नाटक करते रहते हैं, और चुनाव समाप्त होते ही, अपने असली खूंखार रूप में अवतरित हो जाते हैं । जीते हुए राजनेता आम जनता के पैसों पर ठाठ करते रहते हैं, सारी सुविधाओं का लाभ उठाते रहते हैं, और सुरक्षा कर्मियों की भीड में उन्हीं लोगों से अकडकर दूरी बनाते रहते हैं, जिनके चरण वे कुछ दिन पहले ही छूते रहते थे । उनसे मिलने के अनेक प्रयासों में विफ़ल होने के बाद निराश और हताश आम नागरिक केवल अपने दुर्भाग्य को कोसता रह जाता है ।
हर नागरिक पता नहीं क्यों, फ़िर भी हर बार वही गलती दोहराता रहता है और हर बार यह सब कुछ जानते हुए भी उन्हीं रक्त पिपासुओं को खुद ही चुनता रहता है, कि ये राजनेता कभी किसी के नहीं होते । मैंने अपने लगभग पिचहत्तर वर्षीय जीवन में बहुत सा बदलाव देखा है और अनेक प्रकार के कटु अनुभवों को ग्रहण किया है । जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है, वैसे वैसे ही राजनेताओं का स्तर गिरता जा रहा है, और उनका व्यवहार भी बदलता जा रहा है । आकाशवाणी के कारण मुझे सभी विशालतम से लेकर सामान्य स्तर तक के राजनेताओं के बहुत निकट रहने के अनगिनत अवसर प्राप्त होते रहे । मैं किसी दल से अपने आप को कभी भी जोड नहीं पाया, परंतु व्यक्तिगत तौर पर मैंने अनेक नेताओं के व्यवहार को बहुत पसंद किया ।
पंडित जवाहरलाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, डाक्टर राममनोहर लोहिया, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, पी0 वी0 नरसिंह राव, मोरारजी भाई देसाई जैसे नेताओं से लेकर वसंतराव नाइक, वसंत दादा पाटिल, यशवंतराव चव्हाण, शंकरराव चव्हाण, बाला साहब ठाकरे, प्रिंसिपल मनोहर जोशी, शरद पवार, द्वारका प्रसाद मिश्र, अर्जुन सिंह, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, मोहन लाल सुखाडिया, पंडित गोविन्द वल्लभ पंत, विलासराव देशमुख, आर0 आर0 पाटिल, गोपीनाथ मुंडे, अनिल देशमुख, डाक्टर श्रीकांत जिचकर आदि अनगिनत नेताओं से मुझे भरपूर स्नेह प्राप्त होता रहा । मुझे यह लिखने में कोई झिझक नहीं है कि आजकल के अधिकांश नेताओं में न सहज भाव रह गया है, न स्नेह पूर्ण व्यवहार रह गया है, और न अपनापन रह गया है । अब तो केवल शान, दिखावा, अकड, और अशिष्टता ही रह गई है, अधिकांश राजनेताओं में ।
इसीलिये मैं किसी से मिलता नहीं और मिलना चाहता भी नहीं । विभिन्न नागरिक भी पता नहीं क्यों फ़ेसबुक पर और इन्टरनेट पर कुछ भी असभ्य टिप्पणियां करने लग गये थे । कुछ लोग तो अश्लील टिप्पणियां करने में भी नहीं झिझके । इस प्रकार की बातों से मैं बहुत ही चिढने लग गया था । कला के क्षेत्र में भी अजीब चलन शुरू हो गया है । बेसुरे-बेताले लोग घर में बैठकर या मंच पर कैसा भी गाने-बोलने लगे हैं । उनके इस दुस्साहस की प्रशंसा करने वालों की भी कमी नहीं रहती । यह सब देख-सुन कर कम से कम मैं बहुत ही बेचैनी महसूस करने लगा था ।
मेरा सानिध्य हमेशा सुर, ताल और सभ्य भाषा से रहा है । इसलिये बेसुरा, बेताला और असभ्य प्रदर्शन मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था । इसी कारण से मैंने फ़ेसबुक और इन्टरनेट से पिछले एक महीने से अभी तक अपने आपको दूर करके रखा हुआ था । टैलीविज़न तो मैं देखता ही नहीं । रेडियो सुने हुए भी बहुत लम्बा समय बीत गया है । आजकल का चिल्लाना और कुछ भी बोलते रहना मेरे लिये असह्य हो गया है । अब लोकसभा के चुनाव तो समाप्त हो गये, ज़हर उगलने का समय चला गया । विधान सभा के चुनावों में अभी कुछ महीने शेष हैं । मैं केवल यही सोच रहा हूं कि क्या अब कुछ समय चैन से जी सकेंगे सभी देशवासी ?
किशन शर्मा,
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