भारत के इस शहर में लगती है लाशों की बोली! पढ़ें – कैसे काम करते हैं गिरोह

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मुंबई। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि सपनों के शहर मुंबई में होता है लाशों का सौदा और हर लाश की बोली लगती है, साथ ही पुलिस से लेकर वकील तक इस रैकेट में शामिल हैं। मुंबई की लाइफ लाइन लोकल ट्रेन में कुछ लोगों की जिंदगी का सफर हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाता है, लेकिन कुछ लोग ऐसी ही मौत के ताक में घात लगाए बैठे होते हैं। जी हां मुसाफिरों की मौत के सौदागर पूरे मुंबई में फैले हुए हैं और रेलवे के सख्त नियमों में भी इन लोगों ने सेंध लगा रखी है और अगर आरपीएफ की मानें तो ये सिलसिला पिछले कई सालों से चल रहा है।
मुंबई में रेल हादसों में मरने वाले लोगों के नाम पर फर्जी क्लेम करने का पूरा कारोबार बड़ी बेफिक्री से चलाया जा रहा है। खुद रेलवे के अधिकारी मानते हैं कि इस रैकेट में दलाल के साथ वकीलों, जीआरपी और रेल अधिकारियों की सांठगांठ है और ये लोग मिलकर रेलवे को करोड़ों का चूना लगा रहे हैं। ये लोग रेल हादसे में मारे गए लोगों के नाम पर क्लेम करते हैं और पैसे आने पर पूरा पैसा हड़प कर धमकियां देते हैं।

साल 2013 में रामकलाबाई गनबास नाम के शख्स के बेटे की ट्रेन से कटकर मौत हो गई थी। बेटे की मौत के बाद इन्होंने ने एक वकील ने संपर्क किया और तय हुआ कि वकील इन्हें मुआवजा दिलवाएगा। इन लोगों ने तमाम जरुरी दस्तावेज वकील को दे दिए। रेल ट्रिब्यूनल बोर्ड में मुआवजा के लिए केस भी चला और कोर्ट ने बतौर मुआवजा चार लाख रुपये गनबास परिवार को देने का आदेश दिया जो कि सीधा रामकला के खाते में जमा होना था।

लेकिन मुआवजा की रकम का ऐलान होते ही गिरोह सक्रिय हो गया और वकील ने रामकला से कुछ सादे कागजों पर अंगूठे का निशान ले लिया और दूसरे बैंक में खाता खोलकर पूरी रकम हड़प ली। इतना ही नहीं मुंह बंद रखने के लिए इन्हें कुछ रुपये दे दिए और जब इन्होंने अपने हक की रकम मांगी तो धमकियां अब धमकियां मिल रही हैं।

गनबास परिवार तो केवल बानगी है इस शहर में मौजूद उन तमाम परिवार का दर्द बताने के लिए जो शातिर गिरोह का शिकार हो चुके हैं। सही मुआवजा न मिलने और फर्जी क्लेम के कई मामले सामने आने के बाद आरपीएफ ने तफ्तीश की और कई चौंकाने वाले खुलासे किए। आरपीएफ के मुताबिक ये गिरोह बेहद संगठित तरीके से पिछले कई सालों से ऑपरेट कर रहा है। तफ्तीश में लाश के सौदागरों की मॉडस ऑपरेंडी का खुलासा हुआ है। इस गिरोह के सदस्य सुबह ही चर्चगेट से विरार, सीएसटी से कल्याण और हार्बर लाईन की करीब 30 रिटर्न टिकट खरीद लेते हैं।

जैसे ही किसी के रेल हादसे में मरने की खबर आती है तो जीआरपी, हमाल और स्टेशन मास्टर की टीम मौके पर पहुंचती है। मरने वाले शख्स के पास रेल टिकट या पास हुआ तो ठीक वरना जीआरपी के कर्मचारी उस शख्स की जेब में अपना खरीदा हुआ टिकट डाल देते हैं फिर जीआरपी के अधिकारी गिरोह में शामिल वकील को पीड़ित परिवार के पास भेजते हैं और उनसे मुआवजा दिलाने के ऐवज में सौदेबाजी करता है घरवालों से बात हो जाने के बाद केस हाथ में आते ही गिरोह में शामिल रेल विभाग के अधिकारी और जीआरपी बडी ही सफाई से सबूतों में हेरफेर करते हैं।
कोर्ट की प्रक्रिया पूरी होने के बाद जो मुआवजा मिलता है उसमें से महज 30 फीसदी पैसे ही घरवालों को दिए जाते हैं और बाकी पैसों की बंटरबाट हो जाती है। आरपीएफ सूत्रों के मुताबिक, लाशों का सौदा करने वाला सिर्फ एक गिरोह नहीं बल्कि कई गिरोह सक्रिय है। पिछले कई सालों में इन सौदागरों ने फर्जी क्लेम हासिल कर सरकारी तिजोरी में करोडों की चपत लगा चुके हैं।

वहीं रेल हादसों में मरने वाले लोगों को मिलने वाले मुआवजे के लिए लाशों की बोली लगाने वाले इस तरह के गिरोह की कमर तोडने की कोशिश भी की जाती रही है और इसके लिए बाकायदा अनटुवर्ड इंसीटेंड इंवेस्टिगेशन सेल भी बनाया गया है। रेल हादसों में मरने वाले यात्री के क्लेम हासिल करने के लिये सबूतों से छेडछाड करने वाले इस गिरोह पर लगाम लगाने के लिये ही आरपीएफ ने यूआईआईसी सेल बनाया है। पहले होता ये था कि किसी भी हादसे के समय केवल जीआरपी के अधिकारी ही जाते थे।

लेकिन अब जीआरपी के साथ आरपीएफ के जवान भी मौके पर पहुंचते हैं और अलग तफ्तीश करते है। हादसे की जगह का साइट मैप बनाया जाता है हादसे की जगह की फोटोग्राफी की जाती है किलोमीटर नंबर दर्ज किया जाता है। यात्री के पास टिकट या पास है या नहीं इसकी जांच होती है, जिस ट्रेन से हादसा हुआ है उसके मोटर मैन का बयान दर्ज किया जाता है। मौके से मिले तमाम सबूत ये एक बात ये साफ हो जाती है कि हादसे में मरने वाला शख्स वैध मुसाफिर था या अवैध। यात्री अगर वैध भी है तो ये भी देखा जाता है की उसने रेल नियमों का पालन किया या नहीं। सारे सबूत इकट्ठा करने के बाद आरपीएफ उन्हें कोर्ट में जमा करती है। युआईआईसी की वजह से रेल विभाग की तिजोरी में सेंधमारी में काफी कमी आई है।

बता दें कि साल 2012 में मुआवजे के लिए 510 आवेदन आए, जिनमें से 37 को खारिज किया गया, इससे दो करोड़ 80 लाख रुपये बचे साल 2013 में मुआवजे के लिए 376 आवेदन ही आए जिनमें से 83 खारिज हो गए और 4 करोड 88 लाख की बचत हुई। साल 2014 में मुआवजे के लिए 355 आवेदन आए इनमें से 279 आवेदन खारिज हुए साल अप्रैल 2015 से मार्च 2016 तक मुआवजे के लिए कुल 340 आवेदन आए इनमें से 114 आवेदन खारिज हुए, सात करोड़ से ज्यादा की बचत हुई। हालांकि जानकारों का कहना है की रेल प्रशासन कुछ और सुधार करके फर्जीवाड़ा आसानी से रोक सकता है।