गायब हो गयीं चारागाहों की जमीनें

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चारागाह पशुरक्षण और पशु संवर्द्धन का आधार है। पशुधन इस देश के कृषि, व्यापार, उद्योग इत्यादि अनेक उपयोगी विषयों के मूल में पशुधन ही है। सच तो यह है कि देश के धर्म, संस्कृति, कृषि, व्यापार, उद्योग, समृध्दि और सामाजिक व्यवस्था तथा जनता की शांति व सुरक्षितता की जीवन-रेखा देश के समृध्द चरागाह ही हैं। पशुओं के चरने की जमीन को चरागाह कहते हैं। कहीं-कहीं इसे गोचर भूमि भी कहा जाता है। सौराष्ट्र में उसे घास की वीडी कहते हैं। जो देश स्वयं को उद्योग प्रधान कहलाते हैं और जिनके उद्योगों को भी भारत के कृषि उत्पादों पर आधारित रहना पड़ता है वे भी पशुओं के परिपालन की ओर ध्यान देते है और संभव हो उतनी ज्यादा जमीनें चरागाह के लिए सुरक्षित रखते हैं।

ब्रिटेन खुद के लिए अनाज आयात करके भी और जापान रूई आयात करके भी चरागाहों को सुरक्षित रखते हैं। क्योंकि उनको चरागाहों और पशुओं का महत्व समझ में आया है।इंग्लैंड हरेक पशु के लिए औसतन 3.5 एकड़ जमीन चरने के लिए अलग रखता है। जर्मनी 8 एकड़, जापान 6.7 एकड़ और अमेरिका हर पशु के लिए औसतन 12 एकड़ जमीन चरनी के लिए अलग रखता है। इसकी तुलना में भारत में एक पशु के लिए चराऊ जमीन 1920 में 0.78 एकड़ अर्थात अंदाजन पौने एकड़ थी। अब यह संख्या घटकर प्रति पशु 0.09 एकड़ हो गर्इ है। अर्थात अमेरिका में 12 एकड़ पर 1 पशु चरता है जबकि भारत में एक एकड़ पर 11 पशु चरते हैं। सिर्फ एक ही साल में भारत में चारागाहों की साढ़े सात लाख एकड़ जमीन का नाश कर दिया गया। 1968 में गोचर भूमि 3 करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ थी, जो 1969 में घटकर 3 करोड़ 25 लाख एकड़ हो गर्इ। और अगले पांच सालों में अर्थात 1974 में और ढाई लाख एकड़ कम होकर 3 करोड़ 22 लाख 50 हजार एकड़ हो गई।

इस तरह सिर्फ छह सालों में 10 लाख एकड़ गोचर भूमि का नाश किया गया। वर्तमान में गोचर भूमि का कोर्इ प्रमाणिक आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। फिर भी किसानों का विकास करने की, गरीबों को रोजी दिलाने का वादा करने वाले, विशेषकर किसानों, पशुपालकों व गांव के कारीगरों के वोट से चुनाव जीतने वाले किसी भी विधानसभा या लोकसभा के सदस्य ने उसका न तो विरोध किया, न ही उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की है। हमारे देश के धर्म, संस्कृति, समृध्दि व सलामती की आधारशिला हमारे पशु थे और पशुओं की जीवन- रेखा हमारे चारागाह। हमारी गायों को कत्लखाने ढकेलने की साजिश के एक भाग के रूप में अंग्रेजों ने चरगाहों का नाश कर दिया। इस्लाम के आक्रमण के समय तलवार के सामने तलवारें टकरार्इ थीं, लेकिन यूरोपीय आक्रमण अलग ही प्रकार का था। उसमें भलाई और भोलेपन के सामने कपट व नीचता टकरायी, एकवचनीपन और नीति के खिलाफ दोगलापन व दगाबाजी टकरायी जिसमें भारतवासियों की पराजय हुई।

इस कल्पनातीत युध्द में भारत ने दो सौ वर्षों तक जो खून रिसते जख्म सहे हैं, वह खून तो शायद अगर हम अब भी सावधान हो जायें तो 100-200 सालों में बहना बंद हो जायेगा, लेकिन इन जख्मों को भरने में शायद एक हजार साल लग जायेंगे।आज समाज के लिए चरागाह जीवन मरण का और मूलभूत विषय है। क्योंकि जब तक चरनियां भरपूर मात्रा में फिर से विकसित नहीं होंगी, तब तक घर-घर में फिर से गाय को परिवार के सदस्य की तरह नहीं रख सकेंगे। जब तक हरेक घर में गाय फिर से बांधी नहीं जायेगी, तब तक हिंदू प्रजा नाममात्र की हिंदू रहेगी। हिंदू की तरह जी नहीं पायेगी।